प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन
सब के लिये जल
भारत में मानसून के कारण वर्षा होती है। इसका मतलब है कि भारत में होने वाली वर्षा का अधिकांश हिस्सा साल के कुछेक महीनों में ही होती है। सामान्य रूप से वर्षा का पानी जमीन के भीतर रिस जाता है जिससे भूमिगत जल भंडार रिचार्ज होते हैं। लेकिन अब कई कारणों से यह नहीं हो पा रहा है।
ब्रिटिश शासकों ने वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक संरचनाओं की अनदेखी की और बड़े बाँध बनाने पर जोर दिया। आजादी के बाद भी यहाँ की सरकार ने उसी नीती का अनुसरण किया। सरकार ने वर्षा जल संग्रहण के परंपरागत संरचनाओं की देखभाल की जिम्मेदारी भी ली। खेती के नये तरीकों से भूमिगत जल का दोहन बढ़ गया। आबादी बढ़ने के साथ भूमिगत जल की मांग भी बढ़ गई। इसके परिणामस्वरूप वाटर टेबल नीचे चला गया; जिससे कई स्थानों पर पीने के पानी की कमी होने लगी।
हिमाचल प्रदेश में कुल्ह: हिमाचल प्रदेश के परंपरागत सिंचाई सिस्टम को कुल्ह कहते हैं। सिंचाइ के लिये बनी नहरों के नेटवर्क को कुल्ह कहते हैं। पहले इसका मैनेजमेंट स्थानीय लोगों के हाथों में था। कुल्ह के पानी पर सबसे पहला अधिकार उस गाँव का होता था जो पानी के स्रोत से दूर हुआ करता था। उसके बाद उस गाँव का नम्बर आता था जो और ऊँचाई पर थे। कुल्ह के मैनेजमेंट की जिम्मेदारी सरकार ने ले ली। धीरे धीरे कुल्ह का इस्तेमाल कम पड़ गया और अब वे काम लायक नहीं बचे हैं।
बाँध
मल्टीपरपस प्रोजेक्ट के लिये नदी पर बड़े बाँध बनाये जाते हैं। बाँध की सहायता से नदी के पानी को जमा किया जाता है। फिर उस पानी को बिजली बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। उसके बाद पानी को नहरों में छोड़ा जाता है ताकि उसका इस्तेमाल दूर दराज के इलाकों में सिंचाई के लिये हो सके।
बाँध से लाभ: बाँधों से कई घरों तक बिजली पहुँचाने में काफी मदद मिली है। बाँध से एक उचित सिंचाई व्यवस्था विकसित करने में भी मदद मिली है; जिससे कृषि पैदावार बढ़ी है। आज इंदिरा गाँधी नहर के कारण राजस्थान का एक बड़े हिस्से में हरियाली आ गई है।
बाँध से नुकसान:
कई स्थानों पर बाँध के कारण जल का असमान वितरण हुआ है। जो लोग पानी के स्रोत के निकट रहते हैं उन्हें अधिक पानी मिलता है। जो लोग पानी के स्रोत से दूर रहते हैं, उन्हें कम पानी मिल पाता है।
किसी बड़े बाँध के बनने से कई गाँव कैचमेंट एरिया में आ जाते हैं, और काफी लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। इससे लोगों में रोष बढ़ जाता है क्योंकि उन्हें फिर से अपने जीवन की शुरुआत करनी पड़ती है।
बड़े बाँध को बनाने में काफी खर्च आता है। इससे अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ जाता है।
बड़े बाँध से पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। कैचमेंट एरिया के प्लांट और जानवरों का सफाया हो जाता है। इससे बायोडाइवर्सिटी को भारी नुकसान होता है।
कैचमेंट एरिया में जो प्लांट डूब जाते हैं, उनके डिकम्पोजीशन से भारी मात्रा में मीथेन गैस निकलती है। इससे ग्लोबल वार्मिंग होती है, क्योंकि मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस है।
जल संग्रहण
जल संभर प्रबंधन में मिट्टी और जल के साइंटिफिक मैनेजमेंट पर जोर दिया जाता है ताकि बायोमास के उत्पादन में वृद्धि हो सके। वाटरशेड मैनेजमेंट (जल संभर प्रबंधन) का मुख्य लक्ष्य होता है मिट्टी और जल के मुख्य स्रोतों को विकसित करना। वाटरशेड मैनेजमेंट का सेकंडरी लक्ष्य होता है सेकंडरी संसाधन के रूप में प्लांट और जंतुओं को विकसित करना। साधारण शब्दों में कहा जाये तो जल और मिट्टी में सुधार लाया जाता है ताकि प्लांट की वृद्धि बेहतर हो सके। इससे जंतुओं को ज्यादा भोजन मिल पायेगा।
हमारे देश में वर्षा जल संग्रहण की पुरानी परंपरा रही है। नीचे दिये गये टेबल में वर्षा जल संग्रहण की कुछ संरचनाओं को दिखाया गया है। इनमें से कुछ का इस्तेमाल पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिये भी किया जाता है। इनमें से कुछ का इस्तेमाल तो आज भी हो रहा है।
जल संग्रहण की संरचना | राज्य |
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खादिन, टंकी, नाड़ी | राजस्थान |
बंधारस, ताल | महाराष्ट्र |
बंधिस | मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश |
अहार, पाइन | बिहार |
कुल्ह | हिमाचल प्रदेश |
तालाब | जम्मू कश्मीर |
एरि | तमिल नाडु |
सुरंगम | केरल |
कट्टा | कर्णाटक |
कोयला और पेट्रोलियम
जल, मिट्टी और वन रिन्युएबल रिसोर्स हैं, लेकिन कोयला और पेट्रोलियम नॉन-रिन्युएबल रिसोर्स हैं। यदि सही ढ़ंग से देखभाल की जाये तो जल, मिट्टी और जंगल हमेशा रहेंगे। लेकिन कोयले और पेट्रोलियम पर यह बात लागू नहीं होती है। चाहे हम कितनी भी सूझ बूझ से उनका इस्तेमाल कर लें, आने वाले समय में इनका स्टॉक समाप्त हो जायेगा। एक अनुमान के मुताबिक पेट्रोलियम का भंडार लगभग चालीस साल और चलेगा, जबकि कोयले का भंडार एक सौ वर्षों में समाप्त हो जायेगा। कोयले और पेट्रोलियम पर से हमारी निर्भरता कम करने के लिये हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को खोजना होगा।
कोयले और पेट्रोलियम के मैनेजमेंट के बारे में सोचते समय हमें पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में भी सोचना होगा। हम जानते हैं कि फॉसिल फ्यूल को जलाने से कई प्रदूषक गैसें बनती हैं; जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड, आदि।
कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है। कार्बन मोनोऑक्साइड के जहरीली गैस होती है; चाहे इसका कॉन्संट्रेशन कम ही क्यों न हो। सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड जब वर्षा के जल से मिलते हैं तो एसिड रेन बनाते हैं। एसिड रेन जीवों और भवनों के लिये नुकसानदेह होता है।
कोयले और पेट्रोलियम से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के लिये हमें उनके इस्तेमाल को कम करना होगा।
सारांश
- पृथ्वी पर संसाधन सीमित मात्रा में हैं। इसलिये उनके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की जरूरत है।
- जो लोग वन पर सीधे या परोक्ष रूप से निर्भर करते हैं, उन्हें स्टेकहोल्डर कहते हैं। जो लोग फॉरेस्ट मैनेजमेंट को प्रभावित कर सकते हैं उन्हें भी स्टेकहोल्डर कहते हैं।
- जब संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह से किया जाता है कि लंबे समय तक उनकी सप्लाई सुनिश्चित की जा सके तो इसे सस्टेनेबल मैनेजमेंट कहते हैं।
- सामान्य तौर पर वर्षा का जल जमीन में रिस जाता है जिससे भूमिगत जल के भंडार रिचार्ज होते रहते हैं। लेकिन विभिन्न कारणों से अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।
- बाँध के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिये और बिजली बनाने के लिये होता है।
- बड़े बाँधों से होने वाले नुकसान हैं; लोगों का विस्थापन, जनता के पैसों की बरबादी और पर्यावरण को नुकसान।
- वाटरशेड मैनेजमेंट में मिट्टी और जल के साइंटिफिक मैनेजमेंट पर जोर दिया जाता है ताकि बायोमास के उत्पादन को सुधारा जा सके।
- एक अनुमान के मुताबिक पेट्रोलियम का भंडार चालीस वर्ष में समाप्त हो जायेगा और कोयले का भंडार एक सौ वर्ष में समाप्त हो जायेगा।
- फॉसिल फ्यूल को जलाने से कई प्रदूषक गैसें बनती हैं; जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड, आदि।