ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन
आज भी भारत की आधी से अधिक आबादी गाँवों में बसती है। आज भी यहाँ की अर्थव्यवस्था पर गाँवों का भारी प्रभाव रहता है। अठारहवीं सदी में तो शहरी आबादी नगण्य हुआ करती थी। इसलिए कम्पनी को अपनी पैठ बनाने के लिए गाँवों पर पकड़ बनाना जरूरी था। इस अध्याय में आप जानेंगे कि कम्पनी ने किस तरह गाँवों पर पकड़ बनाना शुरु किया और किस तरह किसानों को अपनी जरूरत के लिए खेती करने को बाध्य किया। इसका किसानों पर क्या असर पड़ा और वे कैसे विद्रोह में उठ खड़े हुए।
दीवानी का अधिकार
मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने 12 अगस्त 1765 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल का दीवान बना दिया। इस तरह से कम्पनी को बंगाल का राजस्व वसूलने और उसका मनचाहे तरीके से इस्तेमाल करने का अधिकार मिल गया।
कम्पनी के अधिकारियों को भारत में अपनी जड़ें जमाने के लिए एक बात समझ में आ गई थी। उन्हें उन लोगों के महत्व के बारे में पता था जिनकी गाँवों में इज्जत थी और हुकूमत चलती थी। कम्पनी को पता था कि ऐसे लोगों को नाराज करके यहाँ शासन करना असंभव था।
राजस्व में वृद्धि
शुरु में कम्पनी अपने व्यापार और अन्य खर्चों के लिए काम भर का लगान वसूलना चाहती थी। लेकिन लगान तय करने और वसूलने के लिए कोई स्थाई सिस्टम बनाने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। उस समय इतना लगान वसूल लिया जाता था कि पाँच वर्षों के भीतर कम्पनी द्वारा खरीदी गई चीजों की कीमत दोगुनी हो चुकी थी।
आम लोगों की मुसीबतें
इस बीच बंगाल की अर्थव्यवस्था कई समस्याओं से पीड़ित थी। कारीगरों को अपना सामान कम कीमत पर बेचने को बाध्य होना पड़ता था। इसलिए उनमें से अधिकतर लोग गाँव छोड़कर पलायन कर रहे थे। किसान लगान चुकाने की स्थिति में नहीं थे। कारीगरों और किसानों का उत्पादन गिर रहा था। 1770 में बंगाल में जबरदस्त अकाल पड़ा जिससे एक करोड़ लोग मारे गए।
एक नई व्यवस्था
कम्पनी को लगता था कि खेती को सुधारने के लिए जमीन में निवेश करना जरूरी था। इसे सुनिश्चित करने के लिए 1793 में परमानेंट सेटलमेंट की व्यवस्था शुरु की गई। इस व्यवस्था के तहत राजा और तालुकदारों को जमींदार बना दिया गया और उन्हें किसानों से लगान वसूलने की जिम्मेदारी दे दी गई। लगान की एक निश्चित राशि को हमेशा के लिए तय किया गया। इसलिए इस सिस्टम का नाम परमानेंट सेटलमेंट रखा गया। कम्पनी के अफसरों को लगता था कि इससे लगान नियमित रूप से मिलता रहेगा। उन्हें यह भी लगता था कि इससे जमींदारों को भूमि में निवेश करने की प्रेरणा मिलेगी। लगान की राशि नहीं बढ़ने वाली थी इसलिए ऐसा माना गया कि उत्पादन बढ़ने से जमींदारों को फायदा होगा।
परमानेंट सिस्टम की खामियाँ
- लगान इतना अधिक होता था कि जमींदारों को उसका भुगतान करने में मुश्किल होती थी। जो जमींदार समय पर लगान चुकता नहीं करता था उसकी जमींदारी छिन जाती थी। इसलिए जमींदार कभी भी जमीन की सुधार में निवेश नहीं करते थे।
- उन्नीसवीं सदी के पहले दशक से स्थिति में सुधार होने लगा। खेती में विस्तार हुआ और कीमतें बढ़ने लगीं। इससे जमींदारों की आमदनी तो बढ़ गई लेकिन कम्पनी को कोई फायदा नहीं हुआ।
- जमींदार अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में कभी भी जमीन में पैसे नहीं लगाते थे। वे तो बस काश्तकारों को जमीन किराये पर देकर खुश रहते थे।
- यह सिस्टम काश्तकारों के लिए बहुत दमनकारी था। उसे जमींदार को ऊँचा लगान देना पड़ता था लेकिन जमीन पर उसका कोई अधिकार नहीं होता था। काश्तकार को अक्सर लगान चुकता करने के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। समय पर लगान चुकता न करने की स्थिति में उसे जमीन से बेदखल भी किया जा सकता था।
महालवारी बंदोबस्त
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कम्पनी के अफसर लगान की व्यवस्था को बदलने की योजना बना रहे थे। होल्ट मैकेंजी ने एक नई व्यवस्था की शुरुआत की। मैकेंजी उत्तरी भारत के समाज में गाँवों के महत्व से पूरी तरह प्रभावित था। वह गाँवो की इस व्यवस्था को संरक्षित रखना चाहता था। उसने विभिन्न गाँवों में कलेक्टर को सर्वे करने भेजा। भूखंड के आकार, स्थानीय रिवाज और अधिकारों के बारे में आँकड़े इकट्ठे किए गए। हर गाँव के लिए लगान का अनुमान लगाया गया। गाँवों को महाल कहते थे इसलिए इस व्यवस्था का नाम महालवारी बंदोबस्त पड़ा। यह तय हुआ कि लगान की राशि को समय समय पर बदला जाएगा। गाँव के प्रधान को लगान वसूलने की जिम्मेदारी दी गई। इस सिस्टम को बंगाल प्रेसिडेंसी के उत्तर पश्चिमी राज्यों में लागू किया गया। आजकल इसका अधिकतर इलाका उत्तर प्रदेश में आता है।
मुनरो व्यवस्था
इसे रैयतवार या रैयतवारी का नाम दिया गया। सबसे पहले इस व्यवस्था को कैप्टन अलेक्जेंडर रीड ने छोटे पैमाने पर लागू किया। इसे उन क्षेत्रों में परखा गया जिन्हें टीपू सुल्तान की हार के बाद कब्जे में लिया गया था। उसके बाद थॉमस मुनरो ने इसमें कुछ सुधार किये। धीरे धीरे इस सिस्टम को पूरे दक्षिण भारत में लागू किया गया।
दक्षिण भारत में जमींदार नहीं हुआ करते थे। इसलिए इस व्यवस्था को सीधे सीधे काश्तकारों (रैयत) पर लागू करना था। काश्तकार कई पीढ़ियों से खेत जोत रहे थे। उनके खेतों का व्यापक सर्वे करने के बाद लगान को तय किया गया।
अधिक लगान की समस्या
रेवेन्यू अफसर जमीन से आय बढ़ाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने लगान की ऊँची राशि तय की थी। किसानों को लगान देने में मुश्किल हो रही थी। इसलिए रैयत गाँवों से पलायन करने लगे और गाँव के गाँव खाली होने लगे।
यूरोप के लिए फसलें
अठारहवीं सदी के आखिरी दौर में कम्पनी अफीम और नील की खेती के विस्तार की कोशिश कर रही थी। आने वाले डेढ़ सौ वर्षों में अंग्रेजों ने काश्तकारों को कई अन्य फसलें उगाने के लिए समझाया या दबाव डाला, जैसे कि जूट, चाय, गन्ना, कपास, गेहूँ और धान। इन फसलों को यूरोप निर्यात करना था।