व्यापार से साम्राज्य तक
ईस्ट इंडिया कम्पनी व्यापार करने के मकसद से भारत आई थी। धीरे धीरे घटनाक्रम कुछ ऐसे होते चले गये कि कम्पनी ने पूरे भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। इस चैप्टर में आप पढ़ेंगे कि किस तरह व्यापार करने आई एक कम्पनी ने लगभग दो सौ वर्षों के काल में इस विशाल उपमहाद्वीप पर अपना शासन स्थापित कर लिया।
1600 इसवी में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को चार्टर या इजाजतनामा दिया। इसका मतलब था कि कोई भी ब्रिटिश कम्पनी पूर्वी देशों में ईस्ट इंडिया कम्पनी से व्यापार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती थी यानि इस कम्पनी को पूर्व में व्यापार का एकाधिकार मिल गया। उस जमाने में एकाधिकार द्वारा ही मुनाफा कमाया जा सकता था। प्रतिस्पर्धा न होने से वे चीजों को सस्ती खरीदकर महंगी बेच सकते थे।
लेकिन उस चार्टर की मदद से अन्य यूरोपीय देशों की कम्पनियों को पूर्व के बाजारों में व्यापार करने से रोका नहीं जा सकता था। अंग्रेजों के भारत आने के कई वर्षों पहले 1498 में पुर्तगाल के वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप से होते हुए भारत तक का समुद्री मार्ग खोज लिया था। इसलिए पुर्तगाली जल्दी ही भारत पहुँच चुके थे। सतरहवीं शताब्दी की शुरुआत में डच और फिर बाद में फ्रांसीसी व्यापारी भी भारत पहुँच चुके थे।
भारत में बहुत उन्नत किस्म का कपास और रेशम मिलता था जिसकी यूरोप के बाजारों में बड़ी मांग थी। कई भारतीय मसालों (जैसे काली मिर्च, लौंग, इलाइची, दालचीनी) की यूरोप में बड़ी मांग थी। यूरोप की हर कम्पनी इन चीजों को खरीदना चाहती थी, जिससे इनके दाम तेजी से बढ़ने लगे थे। दाम बढ़ने से मुनाफे की गुंजाइश कम होने लगी थी। इसलिए व्यवसाय बढ़ाने का एक ही तरीका था कि प्रतिद्वंदियों को खत्म किया जाए। व्यापार पर एकाधिकार बनाने की होड़ में इन कम्पनियों के बीच जबरदस्त लड़ाइयाँ होती थीं। व्यापार करने के लिए हथियारों और किलेबंदी का सहारा लिया जाता था।
बंगाल में व्यापार शुरु
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1651 में हुगली नदी के किनारे अपनी पहली फैक्ट्री लगाई। उस जमाने में कम्पनी के गोदाम को फैक्ट्री कहते थे और कम्पनी के व्यापारी को फैक्टर कहते थे। जब व्यापार बढ़ने लगा तो कम्पनी व्यापारियों को फैक्ट्री के आस पास बसने के लिए राजी करने लगी। फिर 1696 से कम्पनी ने उन बस्तियों के चारों ओर किलेबंदी शुरु कर दी। कम्पनी ने मुगल अफसरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की जमींदारी ले ली। उनमें से एक गाँव का नाम कालीकाता था। बाद में यह कलकत्ता हो गया और आजकल इसे कोलकाता कहा जाता है। कम्पनी ने मुगल सम्राट औरंगजेब से बिना लगान दिए व्यापार करने की अनुमति भी ले ली। लेकिन कम्पनी के कुछ अफसर भी बिना लगान दिए अपना निजी व्यापार कर रहे थे। इससे बंगाल को राजस्व का भारी नुकसान हो रहा था।
व्यापार से युद्ध तक
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बंगाल के नवाबों ने अपनी प्रभुता और सत्ता का प्रदर्शन शुरु कर दिया। बारी बारी से मुर्शीद कुली खान, अलीवर्दी खान और सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। इन नवाबों ने कम्पनी को और अधिक छूट देने से मना कर दिया और कम्पनी को व्यापार के अधिकार के बदले में अधिक नजराने मांगने लगे। कम्पनी को सिक्के ढ़ालने से रोका गया और किले की हद को बढ़ाने से रोका गया।
उधर कम्पनी ने बताया कि लोकल अफसर ऊल जलूल मांग रख रहे थे। इससे व्यापार तबाह हो रहा था। व्यापार के फलने फूलने के लिए कर हटाना जरूरी था। कम्पनी अपना व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से अधिक से अधिक गांवों को खरीदना चाहती थी और अपने किलों का दायरा बढ़ाना चाहती थी।
इस तरह से अठारहवीं सदी के शुरु में कम्पनी और नवाब के बीच के झगड़े बढ़ने लगे थे।
प्लासी का युद्ध
अलीवर्दी खान की मौत के बाद सिराजुद्दौला 1756 में बंगाल के नवाब बने। कम्पनी किसी कठपुतली को नवाब बनाना चाहती थी ताकि उससे अपने मुताबिक काम करवाए जा सकें। कम्पनी ने सिराजुद्दौला के विरोधियों में से किसी को नवाब बनाना चाहा लेकिन सफल नहीं हुई।
सिराजुद्दौला काफी गुस्से में थे और कम्पनी से कहा कि बंगाल के राजनीतिक मामलों में दखल न दे, किलेबंदी को समाप्त करे और लगान का भुगतान करे। जब बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो सिराजुद्दौला अपने 30,000 सैनिकों के साथ कासिमबाजार स्थित इंग्लिश फैक्ट्री के लिए चल पड़े। कम्पनी के अफसरों को बंदी बना लिया गया, गोदाम पर ताला लगा दिया गया, सभी अंग्रेजों के हथियार जब्त कर लिए गए और अंग्रेजी जहाजों को रोक दिया गया। उसके बाद कम्पनी के किले पर कब्जा करने के लिए नवाब कलकत्ता की तरफ चल पड़े।
जब कलकत्ते की खबर मद्रास पहुँची तो मद्रास से रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सैनिकों को भेजा गया। उनके पीछे नौसेना के बेड़े को भी भेजा गया। उसके बाद, नवाब के साथ बातचीत का लम्बा सिलसिला शुरु हुआ।
प्लासी का युद्ध: आखिरकार, रॉबर्ट क्लाइव ने अपनी सेना को सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी के युद्ध में उतार दिया। यह युद्ध 1757 में हुआ था जिसमें सिराजुद्दौला हार गये। लेकिन यह तभी संभव हुआ जब मीर जाफर ने क्लाइव की मदद की। बदले में उसे सिराजुद्दौला के बाद नवाब बनाने का वादा किया गया।
अब जब कि बंगाल की कमान कम्पनी के पास आ चुकी थी, कम्पनी अभी भी प्रशासन की जिम्मेदारी से दूर ही रहना चाहती थी। कम्पनी का मुख्य लक्ष्य तो अपने व्यवसाय को बढ़ाना था। कम्पनी ऐसे स्थानीय राजाओं की मदद से काम करती रही जो कम्पनी के व्यावसायिक महात्वाकांछाओं को बढ़ावा दें। लेकिन कठपुतली नवाबों को भी अपनी प्रजा को अपनी प्रभुता का प्रदर्शन करना होता था। इसलिए कभी कभी ऐसे नवाब कम्पनी की कुछ बातें मानने से इनकार कर देते थे।
जब मीर जाफर ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन शुरु किया तो उसकी जगह मीर कासिम को नवाब बना दिया दया। जब मीर कासिम भी समस्या खड़ी करने लगा तो उसे 1764 में बक्सर के युद्ध में हरा दिया गया। मीर जाफर को एक बार फिर से नवाब बना दिया गया।
अब मीर जाफर को हर महीने 500,000 रुपए का भुगतान करना होता था। लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कम्पनी और अधिक पैसों की मांग कर रही थी। मीर जाफर की 1765 में मौत होने के बाद कम्पनी के विचार बदलने लगे थे। अब कम्पनी सत्ता को सीधे तौर पर नियंत्रित करना चाहती थी।