8 इतिहास

शिक्षा में सुधार

आज भारत में जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था का चलन है उसे मैकॉले सिस्टम भी कहते हैं। थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले नामक एक अंग्रेज के सुझावों पर इस सिस्टम की शुरुआत होने की वजह से यह नाम पड़ा। आप सभी ने अपनी पढ़ाई इसी सिस्टम में शुरु की है। हम लोग इस सिस्टम के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि लगता है यह हमारे यहाँ यह हमेशा से चला आ रहा है। लेकिन मजेदार बात यह है कि इस सिस्टम की शुरुआत औपनिवेशिक शासकों द्वारा कोई दो सौ वर्ष पहले हुई थी।

इस चैप्टर में इस नये सिस्टम से पहले वाली शिक्षा व्यवस्था के बारे में पढ़ेंगे। आप उन अंग्रेज विचारकों के बारे में पढ़ेंगे जो पूरब की शिक्षा और संस्कृति, यानि ओरिएंटलिज्म के पक्षधर थे। आप उन विचारकों के बारे में भी पढ़ेंगे जो समझते थे कि अंग्रेजी शिक्षा ज्यादा बेहतर होती है। आप उन भारतीय विचारकों के बारे में भी पढ़ेंगे जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के घोर आलोचक थे।

ओरिएंटलिज्म के समर्थक

पूरब की शिक्षा, संस्कृति और धार्मिक विचारधाराओं को परिभाषित करने के लिए पश्चिम के विद्वानों ने इस टर्म का इजाद किया था। पश्चिम के कई विचारक ओरिएंटलिज्म के समर्थक थे। कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं।

विलियम जोंस ने 1783 में जूनियर जज के तौर पर कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट में अपना पद संभाला था। कानून के जानकार होने के साथ साथ वे कई भाषाओं के विद्वान थे। जोंस को ग्रीक, फ्रेंच, अंग्रेजी और फारसी भाषा में महारत हासिल थी। कलकत्ता में उन्होंने पंडितों की मदद से संस्कृत भाषा सीखी। संस्कृत का ज्ञान हासिल करने के बाद उन्होंने भारत की कई धार्मिक किताबों का अध्ययन किया।

कई अन्य समकालीन अंग्रेज अफसर भी भारत के प्राचीन कानून, तर्कशास्त्र, धर्म, राजनीति, नैतिक शिक्षा, गणित, औषधि विज्ञान, आदि में अच्छी रुचि रखते थे। ऐसे लोगों के कुछ उदाहरण हैं हेनरी थॉमस कोलब्रुक और नैथेनिएल हाल्हेड। कोलब्रुक, हाल्हेड और जोंस ने एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की और एशियाटिक रीसर्चेज नाम से एक जर्नल भी शुरु किया।

इन लोगों के मन में प्राचीन संस्कृति के लिए गहरा सम्मान था, चाहे वह भारतीय हो या पश्चिम की हो। उन्हें लगता था कि भारत को समझने के लिए पवित्र ग्रंथों को समझना जरूरी है। उन्हें लगता था उन ग्रंथों की सही समझ से ही भारत के भविष्य का आधार रखा जा सकता है। उन्हें लगता था कि इससे ना केवल अंग्रेजों को भारतीय संस्कृति समझने में मदद मिलेगी बल्कि हिंदुस्तानियों को भी अपनी विरासत का पता चलेगा।

कम्पनी के कई अफसर इन विचारों से प्रभावित थे। वे पश्चिमी शिक्षा के मुकाबले भारतीय शिक्षा पद्धति को बढ़ावा देने की वकालत करते थे। इसी उद्देश्य से कलकत्ता में 1781 में एक मदरसा खोला गया ताकि अरबी, फारसी और इस्लामी कानूनों का अध्ययन किया जा सके। इसी तरह 1791 में बनारस में हिंदू कॉलेज खोला गया ताकि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन को बढ़ावा मिले।

पूरब की भारी खामियाँ

दूसरी तरफ कई ऐसे अफसर भी थे जो ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचक थे। उनका कहना था कि पूरब का ज्ञान गलतियों से भरा और अवैज्ञानिक है। उनका कहना था कि अरबी और संस्कृत की पढ़ाई को बढ़ावा देना बेकार है।

ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचकों में एक नाम था जेम्स मिल का। उनका कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य होता है ऐसी चीज पढ़ाना जो उपयोगी हो और जिसे जमीनी रूप में अमल किया जा सके। उनका मानना था कि भारत के लोगों को पश्चिम द्वारा की गई वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों के बारे में मालूम होना चाहिए।

ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचकों में एक और नाम था थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले का। मैकॉले का मानना था कि भारत एक असभ्य देश था, और उसे सभ्य बनाने की जिम्मेदारी औपनिवेशिक शासकों की थी। उन्हें लगता था कि लोगों को सभ्य बनाने, उनकी जीवन शैली बदलने और उनके मूल्यों और संस्कृति को बदलने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान जरूरी था।

इंग्लिश एजुकेशन ऐक्ट 1835

मैकॉले के सुझावों के आधार पर 1835 का इंग्लिश एजुकेशन ऐक्ट लागू हुआ। इस ऐक्ट के मुताबिक अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का मीडियम बनाया गया और ओरिएंटल संस्थानों को बढ़ावा देना बंद किया गया।

व्यवसाय के लिए शिक्षा

1854 में लंदन में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स नें भारत के गवर्नर जेनरल को एक एजुकेशनल डिस्पैच भेजा। उस डिस्पैच को चार्ल्स वूड ने जारी किया था जो कम्पनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसिडेंट थे। इसलिए इसका नाम वूड्स डिस्पैच पड़ा। इसके कुछ मुख्य बिंदु नीचे दिए गए हैं।

नई शिक्षा व्यवस्था को शुरु करने के लिए कई कदम उठाए गए। शिक्षा से संबंधित मामलों पर नियंत्रण करने के शिक्षा विभाग बनाए गए। यूनिवर्सिटी शिक्षा का सिस्टम भी बनाया गया।