1857 का विद्रोह
1857 का सिपाही विद्रोह का भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण स्थान है। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ यह पहला संघर्ष था जिसे जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन मिला था और जो देश के एक बड़े भूभाग में फैला था। इस अध्याय में आप उन परिस्थितियों के बारे में पढ़ेंगे जिनके कारण लोगों का रोष इतना बढ़ चुका था कि मौका आने पर लोगों ने अंग्रेजी राज की नींव हिला डाली। आप यह भी पढ़ेंगे कि उस आंदोलन ने किस तरह भारत में अंग्रेजी राज के समीकरण को हमेशा के लिए बदल दिया।
नीतियाँ और लोग
नवाबों की छिनती सत्ता
अठारहवीं सदी के मध्य से ही नवाबों और राजाओं की सत्ता कम होने लगी थी। अब उन्हें पहले की तरह सत्ता और सम्मान नहीं मिलता था। अंग्रेजों ने कई राजाओं के दरबार में अपने रेजिडेंट तैनात कर रखे थे ताकि उनके काम काज में दखल डाल सकें। भारतीय राजाओं की आजादी कम कर दी गई और उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया। धीरे धीरे करके कम्पनी ने उनके इलाकों और राजस्व के अधिकार को भी छीन लिया।
शासक परिवारों द्वारा असफल मोलभाव
कई राज परिवारों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कम्पनी से मोलभाव भी किया लेकिन इसमें वे असफल रहे। इसे समझने के लिए रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण लेते हैं। अपने पति की मृत्यु के बाद वे चाहती थीं कि उनके दत्तक पुत्र को उनके राज्य का उत्तराधिकारी मान लिया जाए। इसी तरह, नाना साहेब के दत्तक पुत्र पेशवा बाजी राव द्वितीय चाहते थे कि पेशवा की मृत्यु के बाद उन्हें उनका पेंशन मिले। लेकिन कम्पनी ने उनकी इन माँगों को ठुकरा दिया।
अवध पर कब्जा
1801 में अवध पर एक सहायक संधि (सबसीडियरी एलायंस) थोप दी गई। फिर 1856 में अवध को पूरी तरह कब्जे में ले लिया गया। कम्पनी ने बताया कि प्रजा को नवाब के कुशासन से मुक्त करने के लिए ऐसा जरूरी था।
मुगल शासन खत्म करने की योजना
मुगल राजवंश के शासन को खत्म करने की योजना पर कम्पनी पूरा काम कर रही थी। कम्पनी ने सिक्कों पर से मुगल बादशाह के नाम को हटा दिया। गवर्नर जेनरल डलहौजी ने 1849 में घोषणा की कि बहादुर शाह जफर की मृत्यु के बाद राजपरिवार को लाल किले से बाहर कर दिया जाएगा और उन्हें दिल्ली में कहीं और रहने के लिए जगह दी जाएगी। गवर्नर जेनरल कैनिंग ने 1856 में फैसला लिया कि बहादुर शाह जफर आखिरी मुगल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके वंशजों को राजाओं जैसी मान्यता नहीं मिलेगी, बल्कि उन्हें केवल राजकुमार कहा जाएगा।
किसान और सिपाही
किसानों की अपनी समस्याएँ थीं। लगान की ऊँची दरों और उसे वसूलने के तरीकों से किसान दुखी थे। कई किसानों को कर्ज न चुका पाने के कारण उन जमीनों से हाथ धोना पड़ा जिसे वे कई पीढ़ियों से जोत रहे थे।
कम्पनी की सेना में काम करने वाले सिपाही अपने वेतन, भत्ता और सर्विस की शर्तों से खुश नहीं थे। कुछ नए नियम उनके धार्मिक विश्वास और मान्यताओं के खिलाफ साबित हो रहे थे।
हिंदुओं की मान्यता थी कि समुद्र पार करने से उनका धर्म और उनकि जाति नष्ट हो जाएगी। जब 1924 में सिपाहियों को समुद्र के रास्ते बर्मा जाने के लिए कहा गया तो उन्होंने हुक्म मानने से इनकार कर दिया। वे जमीन के रास्ते बर्मा जाने को तैयार थे। इसके लिए सिपाहियों को कठोर सजा दी गई। कम्पनी ने 1856 में एक नया नियम बना दिया। इस नियम के अनुसार यदि कोई सिपाही की नौकरी करता तो उसे जरूरत पड़ने पर विदेशों में जाना ही पड़ता।
अधिकतर सिपाही ग्रामीण परिवेश से आते थे। उनके परिवार गाँवों में रहते थे। इसलिए गाँवों में होने वाली किसी भी घटना का उनपर असर होता था और वे उसपर प्रतिक्रिया भी करते थे।
सुधारों पर प्रतिक्रिया
अंग्रेजों ने समाज सुधार की दिशा में कई काम किये थे। जैसे कि सति प्रथा को समाप्त करने और विधवा विवाह के लिए कानून बनाए गए। कम्पनी ने अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा देना शुरु किया। 1830 के बाद ईसाई मिशनरियों को काम करने की पूरी छूट दी गई और उन्हें जमीन और सम्पत्ति खरीदने का अधिकार भी दिया गया। 1850 में एक कानून बना जिसके मुताबिक कोई भी भारतीय यदि ईसाई धर्म स्वीकार कर लेता तब भी उसे अपने पुरखों की संपत्ति से हाथ नहीं धोना पड़ता। इस नियम से किसी व्यक्ति के लिए ईसाई धर्म के को कबूलना आसान हो गया।
भारत के लोगों को यह लगने लगा था कि अंग्रेज यहाँ की धार्मिक विचारधारा, सामाजिक रिवाजों और जीने के पारंपरिक तरीकों को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन कुछ ऐसे विचारक भी थे सामाजिक कुरीतियों को खत्म करना चाहते थे।