आदिवासी और दीकू
अंग्रेजी राज में आदिवासियों का जीवन
भारत में आदिवासियों की सैंकड़ों प्रजातियाँ रहती हैं। अलग-अलग आदिवासी आजीविका के लिए अलग-अलग तरह के काम करते हैं। इनमें से कुछ के बारे में आगे बताया गया है।
झूम खेती
घुमंतू खेती को झूम खेती कहते हैं। झूम खेती करने वाले लोग भारत के पूर्वोत्तर और केंद्रीय भागों की पहाड़ियों और जंगलों में रहते थे। वे जंगलों में कहीं भी बेरोकटोक आते जाते थे और जंगल की किसी भी जमीन को खेती के लिए इस्तेमाल कर सकते थे।
झूम खेती करने के लिए जंगल की जमीन के किसी टुकड़े को साफ करना होता है। इस काम के लिए बड़े पेड़ों की टहनियाँ काट दी जाती हैं ताकि जमीन तक धूप आ सके। उसके बाद गिरी हुई पत्तियों और टहनियों को जला दिया जाता है। उससे बनी राख को मिट्टी में मिलाने के बाद जमीन पर बीजों को बिखेर दिया जाता है। एक फसल उपजाने के बाद आदिवासी उस जमीन को परती छोड़ देते हैं और नई जमीन की तलाश में आगे बढ़ जाते हैं।
शिकारी और संग्राहक
कई आदिवासी जंगल से फल फूल और कंद मूल इकट्ठा करते थे और शिकार करते थे। उड़ीसा की खोंड जनजाति ऐसी जनजाति का एक उदाहरण है। लोग शिकार के लिए समूह बनाकर निकलते थे। फलों और कंद मूल का इस्तेमाल भोजन के रूप में होता था। साल और महुआ के बीजों से तेल निकाला जाता था जिसका इस्तेमाल भोजन पकाने के लिए होता था। जंगल से मिलने वाली जड़ी बूटी का इस्तेमाल दवाइयों के रूप में होता था। ये लोग जंगल से मिलने वाले कुछ उत्पादों को नजदीक के बाजार में बेचते भी थे।
कुछ आदिवासी छोटी मोटी मजदूरी भी कर लेते थे। आस पास के गाँवों में कुछ लोग खेतों पर काम करते थे तो कुछ माल ढ़ोते थे और कुछ सड़क निर्माण में मजदूरी करते थे।
अंग्रेजों द्वारा कुछ नये नियम बनने से आदिवासियों के लिए जंगल पहुँच से बाहर होते चले गये। उसके बाद कई आदिवासी काम की तलाश में इधर उधर पलायन करने लगे। लेकिन अधिकतर आदिवासियों को दूसरों के लिए काम करना अपनी शान के खिलाफ लगता था। मध्य भारत की बैगा जनजाति ऐसी ही एक जनजाति थी।
सेठ साहूकारों से सम्पर्क
कई चीजें ऐसी होती थीं जो जंगल में नहीं मिलती थी। ऐसी चीजों के लिए आदिवासियों को व्यापारियों और साहूकारों पर निर्भर रहना पड़ता था। व्यापारी अपना सामान बेचने जंगली क्षेत्रों में जाते थे और आदिवासियों से भी कुछ चीजें खरीदते थे। साहूकार उन आदिवासियों को कर्ज भी देते थे जिसकी ब्याज दर बहुत अधिक होती थी। सेठों और साहूकारों के चक्कर में पड़कर आदिवासी गरीबी और कर्ज के बोझ तले दबने लगे थे। इसलिए व्यापारियों और साहूकारों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। उन्हें आदिवासियों के दुखों का कारण माना जाता था।
जानवर पालने वाले
कई आदिवासी जानवरों को पालते थे। वे मवेशियों के झुंडों के साथ मौसम के हिसाब से एक से दूसरे स्थान पर आते जाते थे ताकि अच्छी चारागाह तक पहुँच सकें। पंजाब के वन गुज्जर और आंध्र प्रदेश के लबादी मवेशी पालन करते थे। कुल्लू के गद्दी भेड़ पालते थे, जबकि कश्मीर के बकरवाल बकरियाँ पालते थे।
एक जगह खेती करना
उन्नीसवीं सदी से पहले से ही कई आदिवासी समूहों ने एक जगह रुककर खेती करना शुरु कर दिया था। ऐसी ज्यादातर स्थितियों में जमीन का मालिक पूरा समुदाय होता था, जैसे कि छोटानागपुर के मुंडा आदिवासियों के मामले में। कुटुंब के हर सदस्य का जमीन पर अधिकार होता था। लेकिन कुटुंब के कुछ लोगों के पास अन्य लोगों से अधिक शक्ति होती थी। कुछ लोग मुखिया बन गये और बाकी उनके अनुयायी। शक्तिशाली मुखिया अक्सर खुद खेती करने की बजाय दूसरों को खेती के लिए पट्टे पर जमीन दिया करते थे।
अंग्रेजों को लगता था कि एक जगह पर स्थाई रूप से रहने वाले आदिवासी अधिक सभ्य थे, जैसे कि गोंड और संथाल। शिकारियों और धुमंतू खेती करने वालों को जंगली और पिछड़े के रूप में देखा जाता था। अंग्रेजों को लगता था कि वैसे आदिवासियों को सभ्य बनाने की जरूरत थी।
आदिवासी मुखिया की हैसियत
अधिकतर आदिवासी इलाकों में मुखिया एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था। उसके पास अच्छी खासी आर्थिक सत्ता होती थी। उसके पास अपने क्षेत्र पर प्रशासन का अधिकार होता था। ऐसे कई मुखियाओं की अपनी पुलिस भी होती थी। वे जमीन और जंगल को लेकर स्थानीय कानून भी बनाते थे।
लेकिन अंग्रेजी राज के दौरान आदिवासी मुखिया के काम और शक्तियों में काफी बदलाव आए। उनकी अधिकतर शासकीय शक्तियाँ कम हो गईं। उन्हें अंग्रेजों के नियमों को मानने के लिए बाध्य होना पड़ा। अंग्रेजी शासन के नाम उन्हें अपने लोगों को अनुशासित करने का काम दे दिया गया। अभी भी उन्हें अपने इलाके की जमीन का मालिकाना हक मिला हुआ था और वे उन जमीनों को पट्टे पर दे सकते थे। लेकिन उनकी शक्तियों में अच्छी खासी कमी आ चुकी थी।