राष्ट्रीय आंदोलन
राष्ट्रवाद का उदय
लगभग एक सौ वर्षों के भीतर अंग्रेजों ने भारत के लोगों के जीवन के लगभग हर पहलू पर कब्जा कर लिया था। कई भारतीयों को लगने लगा था कि इसे हिंदुस्तानियों का देश बनाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत का खत्म होना जरूरी था।
इस चैप्टर में आप भारत के लोगों में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बढ़ते हुए गुस्से के कारणों के बारे में जानेंगे। आप देश में बनने वाले शुरु के राजनीतिक संगठनों और खासकर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बारे में पढ़ेंगे। जब महात्मा गांधी भारत आए तो उन्होंने भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को नई दिशा और नई ऊर्जा प्रदान की। आप गांधीजी के योगदान के बारे में पढ़ेंगे। फिर किस तरह से घटनाचक्र बदला जिससे देश का विभाजन हो गया, आप उसके बारे में भी पढ़ेंगे।
शुरुआती राजनीतिक संगठन
1850 के बाद कई राजनीतिक संगठन बने। उनमें से अधिकतर का निर्माण 1870 और 1880 के दशकों में हुआ था। उनमें से अधिकतर संगठनों की अगुवाई अंग्रेजी में पढ़े लिखे पेशेवर लोग कर रहे थे। ऐसे संगठनों के कुछ उदाहरण हैं पूना सार्वजनिक सभा, इंडियन एसोसियेशन, मद्रास महाजन सभा बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसियेशन, आदि। इसी दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। इन सभी संगठनों के नामों से पता चलता है कि ये ऐसे मुद्दों को उठाना चाहते थे जिसका प्रभाव भारत के हर व्यक्ति पर पड़ता था। यह बात अलग है कि उनमें से कई संगठन देश के कुछ गिने चुने भागों में ही काम कर रहे थे।
अंग्रेजी राज से गुस्से का कारण
1870 और 1880 के दशकों में अंग्रेजी शासन से लोगों के असंतोष के कुछ कारण नीचे दिए गए हैं।
- 1878 में आर्म्स ऐक्ट पारित हुआ था। इस कानून ने भारत के लोगों के लिए हथियार रखने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
- 1878 में ही वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट पारित हुआ था। इस कानून ने किसी भी अखबार और उसके प्रिंटिंग प्रेस को जब्त करने का अधिकार सरकार को दे दिया। यदि कोई अखबार कोई विवादित खबर छापता तो ऐसा किया जा सकता था। यहाँ पर विवादित का मतलब था अंग्रेजी शासन की आलोचना।
1883 में सरकार ने इल्बर्ट बिल लाने की कोशिश की। इस बिल में भारतीय द्वारा किसी भी अंग्रेज या यूरोपीय व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जा सकता था। इस बिल ने भारत में अंग्रेज और हिंदुस्तानी जजों के बीच समानता लाने की कोशिश की थी। लेकिन गोरों ने इस बिल का विरोध किया और सरकार को इसे हटाने के लिए बाध्य किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में बम्बई में हुई थी। कांग्रेस की पहली बैठक बम्बई में हुई थी जिसमें पूरे देश से 72 लोगों ने हिस्सा लिया था। कांग्रेस के शुरुआती नेताओं में अधिकतर लोग बम्बई या कलकत्ता से थे। इनमें से कुछ नाम हैं दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयबजी, डब्ल्यू सी बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र दत्त, एस सुब्रमण्य अय्यर, आदि।
राष्ट्र के बनने की प्रक्रिया
कांग्रेस में दो तरह के नेता हुआ करते थे। एक समूह को नरम दल माना जाता था और दूसरे समूह को गरम दल माना जाता था।
अपने शुरु के बीस वर्षों में अपने उद्देश्यों और तरीकों के मामले में कांग्रेस का रवैया मध्यमार्गी था, यानि यह बीच का रास्ता अपनाती रही। इस दौरान, सरकार और प्रशासन में भारतीय लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी ही कांग्रेस की मुख्य माँग रहती थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कांग्रेस टकराव से दूर ही रहना चाहती थी। इस दौरान कांग्रेस द्वारा उठाई गई माँगों में से कुछ इस तरह हैं।
- कांग्रेस चाहती थी कि विधान परिषदों में भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए। साथ में यह माँग थी कि जिन राज्यों में परिषद नहीं थे वहाँ भी परिषद बनाए जाएँ।
- कांग्रेस ने भारत में सिविल सर्विस परीक्षा करवाने की माँग रखी। तब तक यह परीक्षा केवल लंदन में होती थी।
- कांग्रेस ने न्यायपालिका और कार्यपालिका को अलग करने की माँग की। आर्म्स ऐक्ट को निरस्त करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की माँग भी की गई।
- करों में कटौती, सैनिक खर्चे में कटौती और सिंचाई के अधिक धनराशि की माँग की गई।
- नमक कर, विदेशों में भारतीय मजदूरों के साथ भेदभाव और आदिवासियों की स्थिति पर भी माँगें उठाई गईं।
इस लिस्ट से पता चलता है कि शिक्षित और कुलीन लोगों का संगठन होने के बावजूद कांग्रेस पार्टी आम आदमी के हितों की बात करती थी।
मध्यमार्गी नेता चाहते थे कि अंग्रेजी हुकूमत की खामियों के बारे में जनता को जागरूक करना चाहिए। ऐसा करने के लिए उन्होंने अखबार निकाले, लेख लिखे और अंग्रेजी शासन के बुरे प्रभावों को उजागर करना शुरु किया।