राष्ट्रीय आंदोलन
स्वराज जन्मसिद्ध अधिकार
1890 के दशक से भारत के कई लोगों ने कांग्रेस की शैली पर सवाल खड़े करने शुरु कर दिये। कई नये नेता आए जो अधिक क्रांतिकारी उद्देश्यों और तरीकों पर काम करना चाहते थे। बेपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय ऐसे ही गरम दल के नेताओं में से थे। वे मध्यमार्गी नेताओं की निवेदन की नीति की आलोचना करते थे। उनकी दलील थी कि लोगों को अंग्रेजों की अच्छी नीयत पर भरोसा न करके स्वराज के लिए लड़ना चाहिए। तिलक ने मशहूर नारा दिया था, &qot;स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।"
बंगाल का विभाजन 1905
वायसराय कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया था। उस समय अंग्रेजी भारत में बंगाल सबसे बड़ा प्रदेश था, जिसमें बिहार और उड़ीसा के कुछ भाग शामिल थे। ऐसा बताया गया कि प्रशासनिक सहूलियत के लिए विभाजन किया जा रहा था। लेकिन अधिकतर समीक्षकों का मानना है कि असल में बंगाली नेताओं के प्रभाव को कम करने और बंगाल के लोगों को बाँटने की नीयत से यह विभाजन हुआ था।
बंगाल विभाजन का असर
पूरे भारत के लोग बंगाल विभाजन से क्रोधित थे। कांग्रेस के हर खेमे ने इसका विरोध किया। उस फैसले के विरोध में बड़ी-बड़ी जनसभाएँ हुईं और प्रदर्शन हुए। बंगाल विभाजन के खिलाफ होने वाले आंदोलन को स्वदेशी आंदोलन कहा गया। बंगाल में इसका असर सबसे अधिक था लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में भी इसकी गूँज सुनाई दे रही थी। आंध्र प्रदेश में इसे वंदेमातरम आंदोलन कहा गया।
स्वदेशी आंदोलन के मुख्य लक्ष्य
- अंग्रेजी शासन का विरोध करना
- आत्मनिर्भरता और स्वदेशी उद्यम को बढ़ावा देना
- राष्ट्रवादी शिक्षा और भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा देना
गरम दल के नेताओं ने जनांदोलन तैयार करने और विदेशी संस्थानों और सामानों के बहिष्कार की बात की। कुछ नेताओं ने अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी हिंसा की वकालत भी की।
मुस्लिम लीग: कुछ मुसलमान जमींदारों और नवाबों द्वारा ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में ढ़ाका में हुई। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। उस समय परिषद में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें आरक्षित थीं। लीग की माँग थी कि उन सीटों के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करने के लिए केवल मुसलमानों को वोट देने का अधिकार होना चाहिए। सरकार ने इस माँग को आसानी से 1909 में मान लिया।
कांग्रेस का विभाजन: 1907 में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ। मध्यमार्गी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ थे। विभाजन के बाद कांग्रेस में मध्यमार्गियों का बोलबाला था। लेकिन 1915 में दोनों गुट फिर से एक हो गए। 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ऐतिहासिक लखनऊ पैक्ट पर दस्तखत किए। दोनों पार्टियों ने देश में प्रतिनिधित्व वाली सरकार के लिए साथ मिलकर काम करने का फैसला लिया।
जनता का राष्ट्रवाद
पहले विश्व युद्द ने भारत की अर्थव्यवस्था और राजनीति में कई बदलाव किए। महंगाई तेजी से बढ़ी थी जिससे आम आदमी के जीवन में कई समस्याएँ उठ खड़ी हुई थीं।
युद्ध के कारण हर चीज की माँग बढ़ी थी, जिससे व्यवसायियों ने भारी मुनाफा कमाया था। आयात कम होने का मतलब था कि बाजार की हर माँग को भारत के व्यवसायी पूरा कर रहे थे। अब व्यवसायी अपने लिए अधिक से अधिक अवसर की माँग कर रहे थे।
युद्ध के समय ब्रिटिश सेना में काम करने के लिए यहाँ के गाँवों से लोगों को बड़ी संख्या में जबरदस्ती भर्ती किया गया। जब वे लोग विदेशी जमीन पर गए तो उन्हें पता चला कि उपनिवेशी शक्तियाँ लोगों पर कैसे कैसे जुल्म कर रही थीं।
1917 में रूस का आंदोलन हुआ था। इससे किसानों और मजदूरों के संघर्ष और समाजवाद के सिद्धांत की खबरें भारत के राष्ट्रवादी नेताओं तक भी पहुँचने लगीं।
महात्मा गांधी का आगमन
महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत आये। दक्षिण अफ्रीका में नस्ली भेदभाव के खिलाफ आंदोलन के कारण वे एक सम्मानित नेता बन चुके थे। भारत आने पर जिस तरह से उनका स्वागत हुआ उससे भी उनके बढ़े हुए कद का पता चलता है।
सबसे पहले महात्मा गांधी यहाँ के लोगों, उनकी जरूरतों और पूरी स्थिति के बारे में समझना चाहते थे। इसलिए, पूरे एक वर्ष का समय उन्होंने देश भर में भ्रमण करने में बिताया। सबसे पहले उन्होंने चम्पारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलनों में हिस्सा लिया। उसके बाद महात्मा गांधी ने देशव्यापी आंदोलनों की शुरुआत की। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की।
रॉलैट सत्याग्रह
रॉलैट ऐक्ट 1919 में पास हुआ था। इस कानून ने अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाया और पुलिस की ताकत बढ़ा दी। गांधीजी ने रॉलैट ऐक्ट के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया। उन्होंने लोगों से कहा कि 6 अप्रैल 1919 को इस कानून के खिलाफ अहिंसक विद्रोह करें। इस आंदोलन को शुरु करने के लिए कई जगह सत्याग्रह सभाएँ की गईं।
रॉलैट सत्याग्रह अंग्रेजी सरकार के खिलाफ पहला अखिल भारतीय आंदोलन बन गया। लेकिन इसका असर मुख्य रूप से शहरों तक ही सीमित रहा। पूरे देश में हड़ताल और प्रदर्शन हुए। सरकार ने उस विद्रोह को बर्बरता से कुचलने की कोशिश की। इससे क्रोधित होकर रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी। उस जमाने में किसी व्यक्ति की सफलता को सम्मान देने के लिए अंग्रेजी सरकार नाइटहुड दिया करती थी। यह उपाधि मिलने वाले व्यक्ति के नाम के पीछे सर की उपाधि लग जाती थी, जैसे कि सर जगदीशचंद्र बोस।
खिलाफत और असहयोग आंदोलन
प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की के खलीफा पर अंग्रेजों द्वारा एक मुश्किल संधि समझौता थोपा गया था। इससे पूरी दुनिया के मुसलमानों में गुस्सा था। भारत के दो भाइयों मोहम्मद अली और शौकत अली ने उस बात के विरोध में खिलाफत आंदोलन शुरु किया था। वे चाहते थे कि गांधी जी उस आंदोलन में उनका साथ दें। मुसलमान चाहते थे कि खलीफा को ऑटोमन साम्राज्य में स्थित इस्लाम के पवित्र स्थलों का नियंत्रण फिर से मिल जाए। गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया। गांधी जी इसके जरिए हिंदू और मुसलमानों को एक मंच पर लाना चाहते थे।
1921-22 में असहयोग आंदोलन में गति आ चुकी थी। हजारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए और आंदोलन में हिस्सा लिया। कई नामी गिरामी पेशेवर लोगों ने अपना काम धाम छोड़कर उस आंदोलन में हिस्सा लिया। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के कारण 1920 और 1922 के बीच आयात तेजी से गिरा।
लोगों की प्रतिक्रिया
अधिकतर स्थानों पर असहयोग आंदोलन अहिंसक ही रहा। लेकिन कुछ लोगों ने महात्मा गांधी की बातों का अपने ढ़ंग से मतलब निकाला, और ऐसे अर्थ उनकी अपनी जरूरतों से मेल खाते थे। इनमें से कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं।
- गुजरात के खेड़ा के पाटीदार किसानों ने लगान की ऊँची दर के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चलाया।
- तमिल नाडु और आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों के लोगों ने शराब की दुकानों की घेरेबंदी की।
- नये वन कानूनों का विरोध करने के लिए आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के आदिवासियों और गरीब किसानों ने वन सत्याग्रह किए।
- खिलाफत असहयोग आंदोलन को सिंध और बंगाल में जबरदस्त समर्थन मिला। पंजाब के गुरुद्वारों में अंग्रेजों की सहायता से भ्रष्ट महंत अपना कब्जा जमाए हुए थे। वैसे महंतों को हटाने की माँग को लेकर अकाली आंदोलन हुआ।
- असम के चाय बागानों के मजदूरों ने वेतन बढ़ाने की माँग शुरु की। उनका नारा था, "गांधी महाराज की जय।" असम के कई लोग गीतों में गांधी जी को गांधी राजा कहा जाने लगा।