8 इतिहास

महिलाओं की स्थिति

आज हमारे देश में महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है। लड़कियाँ स्कूल जाती हैं, महिलाएँ नौकरी करती हैं और उन्हें वोट डालने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। इस चैप्टर में आप उन्नीसवीं सदी में महिलाओं और निचली जाति के लोगों के प्रति होने वाले भेदभाव के बारे में पढ़ेंगे। आप उन प्रयासों के बारे में पढ़ेंगे जो इनकी स्थिति में सुधार के लिए किए गए।

आज से दो सौ वर्ष पहले, महिलाओं की स्थिति बहुत अलग थी। बाल विवाह आम बात होती थी। हिंदू और मुस्लिम पुरुष एक से अधिक औरतों से शादी कर सकते थे। यदि कोई हिंदू महिला विधवा हो जाती थी तो उसे उसके पति की चिता पर ही जला दिया जाता था। इस प्रथा को सति प्रथा कहते थे। सति होने वाली औरत का महिमामंडन किया जाता था। संपत्ति पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं होता था। अधिकतर महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था।

सुधार के काम

प्रिंट टेक्नॉलोजी का असर

उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत से भारत में किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं, आदि की छपाई शुरु हो चुकी थी। छपाई शुरु होने से आम लोगों को किताबें आसानी से मिलने लगीं क्योंकि छपी हुई किताब किसी भी पांडुलिपी की तुलना में काफी सस्ती होती थी। अब आम आदमी भी तरह तरह की किताबें पढ़ सकता था और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा में लिख सकता था। इसका फायदा यह हुआ कि लोग हर तरह के मुद्दे पर बहस करने के लायक हो चुके थे। अब नये विचार अधिक लोगों तक पहुँचने लगे थे जिनके कारण समाज में बदलाव आने लगे थे।

राजा राममोहन रॉय (1772-1833)

राजा राममोहन रॉय एक अग्रणी समाज सुधारक थे। उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्मो सभा की स्थापना की जो बाद में ब्रह्मो समाज के नाम से जाना जाने लगा। राममोहन रॉय को लगता था कि समाज के बेहतर भविष्य के लिए कुरीतियों को हटाना होगा। वे महिला शिक्षा की वकालत करते थे। उन्होंने सति प्रथा के खिलाफ प्रचार शुरु किया। अपनी बात रखने के लिए वे पुराने ग्रंथों का हवाला देते थे। राममोहन रॉय के अथक प्रयासों के फलस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत ने 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर

ईश्वरचंद्र विद्यासागर भी बंगाल के रहने वाले थे। विद्यासागर ने भी प्राचीन ग्रंथों का हवाला देते हुए लोगों को सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ समझाना शुरु किया था। उन्होंने विधवा विवाह के लिए काफी काम किया। उनके सुझावों के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून बनाया।

उस जमाने में विधवाओं की स्थिति बहुत खराब हुआ करती थी। यदि कोई स्त्री विधवा हो जाती थी तो उसके बाल काट दिए जाते थे, उसे सफेद साड़ी पहननी होती थी और रूखा सूखा भोजन दिया जाता था। परिवार के लोग उसपर कई तरह के जुल्म करते थे। यदि कोई कम उम्र में ही विधवा हो जाती थी तब भी उसे दोबारा विवाह करने का अधिकार नहीं था।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विधवा विवाह का आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल चुका था। मद्रास प्रेसिडेंसी के तेलुगू भाषी क्षेत्र में एक समाज सुधारक थे जिनका नाम था विरेशलिंगम पुंतुलु। उन्होंने विधवा विवाह के लिए एक संगठन बनाया। बम्बई में कई युवा बुद्धिजीवियों ने भी इस दिशा में काम किया था। स्वामी दयानंद सरस्वती भी विधवा विवाह के समर्थक थे। उन्होंने आर्य समाज नाम के संगठन की स्थापना की।

इतने प्रयासों के बावजूद फिर से विवाह करने वाली विधवाओं की संख्या सीमित ही रही। जिनका विवाह हो भी जाता था उन्हें समाज अपनाता नहीं था।

लड़कियों की शिक्षा

कई सुधारकों का मानना था कि महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए शिक्षा एक कारगर हथियार हो सकती थी। विद्यासागर ने कलकत्ता में लड़कियों के लिए स्कूल खोले। बम्बई में कई सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल शुरु किए। शुरु शुरु में लोग लड़कियों को स्कूल भेजने से कतराते थे। उन्हें लगता था कि पढ़ने लिखने से लड़कियों का दिमाग खराब हो जाएगा। उन्हें डर लगता था कि स्कूल उनकी बेटियों को घर से ले जाएँगे और फिर उन्हें घरेलू कामकाज से दूर कर देंगे। उन्नीसवीं सदी में अधिकतर लड़कियों को उनके उदारवादी पिता या पति या परिवार के किसी अन्य पुरुष ने पढ़ाया था। कुछ महिलाओं ने खुद ही पढ़ना लिखना सीखा था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में आर्य समाज ने पंजाब में लड़कियों का स्कूल शुरु किया। ज्योतिराव फुले ने महाराष्ट्र में लड़कियों का स्कूल खोला।

उत्तरी भारत में कुलीन मुस्लिम घरानों की महिलाओं ने अरबी में कुरान पढ़ना सीखा। उनके लिए महिला शिक्षिका को घर पर ही बुलाया जाता था। मुमताज अली नाम के एक समाज सुधारक ने कुरान की आयतों का हवाला देकर महिला शिक्षा की तरफदारी शुरु की। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से मुस्लिम महिलाओं ने महिला शिक्षा की दिशा में अहम भूमिका निभाना शुरु कर दिया। भोपाल की बेगमों ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए प्राइमरी स्कूल शुरु किया। बेगम रोकेया सखावत हुसैन ने पटना और कलकत्ता में मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोले। 1880 के दशक से महिलाएँ यूनिवर्सिटी में भी जाने लगीं। उनमें से कुछ डॉक्टर बनीं तो कुछ टीचर। कई महिलाएँ लेखिका बन गईं और महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर अपने विचार लिखने शुरु किए। ऐसी कुछ महिलाओं के उदाहरण नीचे दिए गए हैं।

ताराबाई शिंदे पूना से थीं। उन्होंने घर पर ही पढ़ाई की थी। ताराबाई ने एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है स्त्रीपुरुषतुलना। इस किताब में उन्होंने स्त्री और पुरुषों के बीच के भेदभाव की तीखी आलोचना की। पंडित रमाबाई संस्कृत की विद्वान थीं। उन्होंने उच्च जाति की महिलाओं की खराब स्थिति के बारे में लिखा था। पूना में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय गृह बनाया था। यहाँ पर उन विधवाओं को आश्रय दिया जाता था जिन्हें उनके ससुराल वाले प्रताड़ित करते थे। ऐसी महिलाओं को ऐसे कामों का प्रशिक्षण दिया जाता था जिससे वे अपनी रोजी रोटी चला सकें। बीसवीं सदी की शुरुआत से महिलाओं ने राजनैतिक समूह भी बनाने शुरु किए। उन महिलाओं ने महिला मताधिकार, स्वास्थ्य और महिला शिक्षा की दिशा में काम किया। 1920 के दशक से उनमें से कई महिलाओं ने राष्ट्रवादी और सामाजिक आंदोलनों में शिरकत शुरु कर दी।

नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रवादी नेता महिलाओं के लिए समानता और स्वतंत्रता का समर्थन करते थे। उन्होंने आजादी के बाद महिलाओं को भी मताधिकार देने का वादा किया था।

बाल विवाह

समाज में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित थी। सेंट्रल असेंबली में कई भारतीय विधायकों ने इस प्रथा को समाप्त करने की दिशा में काम किया। 1929 में बाल विवाह निषेध अधिनियम पास हुआ। लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 16 और लड़कों के लिए 18 रखी गई। बाद में इसे लड़कों के लिए 21 और लड़कियों के लिए 18 कर दिया गया।