स्वतंत्रता के बाद
1947 की अगस्त में आजादी मिलने के बाद भारत के सामने कई विशाल चुनौतियाँ थीं। कुछ मुख्य चुनौतियों के बारे में नीचे दिया गया है।
- विभाजन के बाद पाकिस्तान से अस्सी लाख शरणार्थी भारत आये थे। उन शरणार्थियों को फिर से बसाना एक बड़ी चुनौती थी।
- उस समय भारत में लगभग 500 रियासतें थीं, जिन्हें नये राष्ट्र में शामिल करना जरूरी था।
- भारत की विशाल जनसंख्या जाति और संप्रदाय के आधार पर बँटी हुई थी। साथ में यहाँ की संस्कृति, खान पान और पहनावे में बहुत विविधता थी। ऐसी विविधता को एकता के सूत्र में पिरोना बहुत बड़ी चुनौती थी।
- भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर निर्भर करती थी, और कृषि पूरी तरह मानसून पर निर्भर करती थी। फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों का एक बड़ा तबका गरीब था जो तंग झुग्गी झोपड़ियों में रहता था। पूरे देश में गरीबी व्याप्त थी, जिसे समाप्त करना जरूरी था।
संविधान की रचना
भारत के संविधान को तैयार करने के लिए एक संविधान सभा बनाई गई जिसके सदस्य जनता द्वारा चुनकर आये थे। संविधान सभा की बैठकें दिसंबर 1946 से नवंबर 1949 तक चलीं। कई दौर की बैठकों में लंबी बहसों के बाद भारत का संविधान तैयार हुआ जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
भारत के संविधान में देश का भविष्य तय करने के लिए रूपरेखा बनाई गई, जिनके बारे में नीचे दिया गया है।
मताधिकार: संविधान ने भारत के लोगों को सार्वभौमिक मताधिकार दिया। इसका मतलब है कि हर वयस्क स्त्री पुरुष को वोट डालने का अधिकार मिला। जब हम अन्य देशों के इतिहास को देखते हैं तो इस बात का महत्व पता चलता है। अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में यह अधिकार लंबे संघर्ष के बाद मिला और टुकड़ों में मिला। सबसे पहले अमीर पुरुषों को मताधिकार मिला। उसके काफी वर्षों बाद हर शिक्षित पुरुष को मताधिकार दिया गया। महिलाओं को मताधिकार मिलने में वर्षों लग गये थे। लेकिन हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने यह काम एक ही बार में कर दिखाया।
समानता: संविधान ने हर व्यक्ति को समानता का अधिकार दिया, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या लिंग का हो।
धर्मनिरपेक्षता: कुछ राजनेताओं का विचार था कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहिए। लेकिन हमारे पहले प्रधानमंत्री एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाना चाहते थे। हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण: गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएँ दी गईं। दलितों और आदिवासियों को सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों और विधायिकाओं में आरक्षण दिया गया। यह याद रखना होगा कि दलित और आदिवासियों का पिछले सैंकड़ों वर्षों से शोषण हो रहा था। उन्हें इतना दबाया गया था कि विशेष मदद के बिना उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार संभव ही नहीं था।
सत्ता की साझेदारी
केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता के बँटवारे को लेकर बहसों के कई दौर चले। यह दलील दी गई कि एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र बनाने के लिए एक मजबूत केंद्र जरूरी था। कुछ सदस्यों की दलील थी कि राज्यों को अधिक शक्ति मिलनी चाहिए क्योंकि राज्य सरकार जनता के अधिक निकट होती है। आखिर में राज्यों और केंद्र के अधिकार क्षेत्र परिभाषित करने के लिए अलग अलग लिस्ट बनाई गई। टैक्स और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों को केंद्र सरकार की लिस्ट में रखा गया। कुछ विषयों को राज्य सरकार की लिस्ट में रखा गया। कृषि और वन जैसे विषयों को समवर्ती लिस्ट यनि साझा लिस्ट में रख गया। इस तरह से केंद्र और राज्य सरकारों की शक्तियों के बीच एक संतुलन बनाने की कोशिश की गई।
भाषा का मुद्दा
भाषा का मुद्दा एक गंभीर समस्या थी, क्योंकि भाषा के मामले में भारत में भारी विविधता है। कुछ नेताओं का कहना था कि अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी भाषा की भी विदाई होनी चाहिए और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में आगे बढ़ाना चाहिए। लेकिन गैर-हिंदी क्षेत्रों के लोग अपने ऊपर हिंदी को थोपे जाने के खिलाफ थे। इसलिए यह तय हुआ कि हिंदी को राजभाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा और विभिन्न राज्यों के बीच संचार के लिए अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल होगा।
नये राज्यों का गठन
1920 के दशक में कांग्रेस ने आजादी के बाद भाषा पर आधारित राज्यों को बनाने की बात की थी। लेकिन समुदाय के आधार पर देश के विभाजन ने राष्ट्रवादी नेताओं का मन बदल दिया था। वे भविष्य में ऐसी किसी भी विघटनकारी शक्तियों से बचना चाहते थे। नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के खिलाफ थे।
लेकिन देश के कई भागों के लोग भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठा रहे थे। सबसे अधिक विद्रोह मद्रास प्रेसिडेंसी के तेलुगू भाषी क्षेत्रों से उठ रहे थे। जब 1952 के आम चुनाव के प्रचार के लिए नेहरू वहाँ गये तो उनका स्वागत काले झंडों से हुआ।
पोट्टी श्रीरामुलू: 1952 के अक्तूबर में वयोवृद्ध गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामुलू तेलुगू भाषी लोगों के लिए आंध्र प्रदेश के गठन की माँग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गये। अट्ठावन दिनों के अनशन के बाद 15 दिसंबर 1952 को उनकी मृत्यु हो गई। उस घटना के बाद उस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हिंसा फैल गई। सरकार को उस माँग के आगे झुकना पड़ा और 1 अक्तूबर 1953 को आंध्र प्रदेश का जन्म हुआ।
अन्य राज्यों का गठन: आंध्र प्रदेश के बनने के बाद अन्य भाषाई समूहों द्वारा नये राज्यों को बनाने की माँग तेज हो गई। मामले की जाँच के लिए एक स्टेट रीऑर्गेनाइजेशन कमीशन बनाया गया। उस कमीशन ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी। कमीशन के सुझावों के आधार पर असम, ओडीसा, तमिल नाडु, केरल और कर्णाटक नये राज्य बनाए गए। उत्तर में हिंदी भाषा वाले विशाल क्षेत्र को कई राज्यों में बाँटा गया। बॉम्बे प्रेसिडेंसी को बाँटकर महाराष्ट्र और गुजरात नाम के दो राज्य बनाए गए। 1956 में पंजाब को बाँटकर पंजाब और हरियाणा बनाए गए।
विकास के लिए योजना
नये राष्ट्र के लिए गरीबी हटाना और आधुनिक तकनीकी और औद्योगिक आधार तैयार करना महत्वपूर्ण लक्ष्य थे। आर्थिक विकास के लिए योजना बनाने और काम करने के उद्देश्य से 1950 में योजना आयोग का गठन हुआ।
हमारे नीति निर्माताओं ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया। इस मॉडल के अनुसार आर्थिक विकास में सरकार और निजी सेक्टर दोनों का योगदान जरूरी था।
आज का राष्ट्र
आज भारत की आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। एक राष्ट्र के रूप में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को बरकार रखना हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है। आजादी के समय कई विदेशी प्रेक्षकों की भविष्यवाणी थी कि भारत एक एकजुट देश के रूप में अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएगा। भारत में मौजूद भारी विविधता ही उनकी चिंता का कारण थी। लेकिन आज हम लोकतंत्र, स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वतंत्र मीडिया के फायदे उठा रहे हैं।
ऐसा पूरी तरह नहीं कहा जा सकता है कि एक राष्ट्र के रूप में हम सफल रहे हैं। आज भी देश में आर्थिक और सामाजिक विषमताएँ हैं। कई ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जाति आधारित असमानताएँ मौजूद हैं। समय समय पर सांप्रदायिक दंगे भी होते रहते हैं। लेकिन 1940 और 1950 के दशक में उपनिवेशी शासन से आजाद होने वाले कई अन्य देशों की तुलना में हमने बहुत बेहतर तरक्की की है।