8 इतिहास

1857 का विद्रोह

सिपाही विद्रोह से जनविद्रोह तक

अंग्रेजों ने इसे सिपाही विद्रोह का नाम दिया था। शुरु में यह एक सिपाही विद्रोह ही था, लेकिन जल्दी इसने एक जनविद्रोह का रूप ले लिया।

1857 के मई महीने में होने वाले विद्रोह ने भारत में कम्पनी की नींव हिलाकर रख दी थी। मेरठ के कैंट से शुरु होने वाला सिपाही विद्रोह जल्द ही उत्तरी और मध्य भारत के एक बड़े भूभाग में फैल गया। समाज के विभिन्न वर्गों के लोग विद्रोह में उठ खड़े हुए थे। कई इतिहासकारों का मानना है कि उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में यह सबसे बड़ी सशस्त्र बगावत थी।

मेरठ से दिल्ली

मंगल पांडे को फांसी

मंगल पांडे एक युवा सिपाही था जो बैरकपुर के कैंट में तैनात था। उसपर अपने अफसरों पर हमला करने का आरोप लगाया गया। उस अपराध के लिए मंगल पांडे को 29 मार्च 1857 में फांसी दे दी गई।

उस घटना के कुछ दिनों के भीतर मेरठ की एक रेजिमेंट के सिपाहियों ने एक ड्रिल के दौरान नये कारतूसों का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। उस समय ऐसी अफवाह उड़ी थी कि उस कारतूस के ऊपर गाय और सूअर की चर्बी लगी थी, जिससे हिंदू और मुसलमान दोनों भड़क गये थे। हुक्म मानने से इनकार करने के कारण 85 सिपाहियों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें दस वर्ष की जेल की सजा सुनाई गई। यह घटना 9 मई 1857 को हुई थी।

प्रतिक्रिया

मेरठ के बाकी सिपाहियों ने बड़े ही जबरदस्त तरीके से प्रतिक्रिया की। 10 मई को सिपाही जेल पहुँचे और कैद सिपाहियों को आजाद करा दिया। उन्होंने अंग्रेज अफसरों पर हमला किया और उन्हें मार दिया। सिपाहियों ने बंदूकें और हथियारों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अंग्रेजों के मकानों और सम्पत्तियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने फिरंगी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। अंग्रेजों को फिरंगी कहा जाता था।

नया नेता

मेरठ में हंगामा मचाने के बाद, सैनिकों ने वहाँ से दिल्ली के लिए कूच कर दिया और अगली सुबह दिल्ली पहुँच गये। जब दिल्ली के रेजिमेंटों तक यह खबर पहुँची तो उन्होंने भी विद्रोह शुरु कर दिया। सिपाही लाल किले के पास जमा हो गये और बहादुर शाह जफर से मिलने की मांग करने लगे। बादशाह अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती देने से कतरा रहे थे लेकिन सिपाही अपनी मांग पर अड़े रहे। वे जबरदस्ती महल में घुस गए और बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया।

बादशाह के पास उनकी मांग मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था। बादशाह ने देश के सभी राजाओं और सामंतों को इस काम के लिए आगे आने के लिए चिट्ठी लिखी। उसने भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने की पेशकश की ताकि अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी जाए। बादशाह के इस कदम का गहरा असर पड़ा।

बहादुर शाह जफर का राजनीतिक महत्व

यह याद रखना होगा कि मुगलों ने देश के एक बड़े भूभाग पर एक लंबे समय के लिए शासन किया था। लगभग ढ़ाई सौ वर्षों के मुगल शासन का असर यहाँ की भाषा, संस्कृति, खान-पान, पहनावे, आदि में आज भी दिखता है। अधिकतर छोटे राजा और सामंत मुगलों के नाम पर ही शासन चला रहे थे। उन्हें उम्मीद थी कि यदि मुगल शासक को किसी तरह से दोबारा सत्ता मिल गई तो फिर वे भी बेरोकटोक अपना शासन चला सकते थे।

अंग्रेजों ने शुरु में मेरठ के विद्रोह को हल्के में लिया। लेकिन विद्रोह को समर्थन देने के बहादुर शाह जफर के फैसले ने परिस्थितियों में नाटकीय परिवर्तन कर दिया। लोगों को उम्मीद की एक किरण दिखाई देने लगी थी जिससे उनका हौसला बढ़ गया था।

विद्रोह का फैलना

धीरे धीरे यह विद्रोह देश के अन्य हिस्सों में फैल गया। कई रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया और दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे केंद्रबिंदुओं पर इकट्ठे होने लगे। गाँवों और शहरों के लोगों ने भी विद्रोह शुरु कर दिया और स्थानीय नेताओं, जमींदारों और सामंतों को समर्थन देने लगे। स्थानीय नेताओं, जमींदारों और सामंतों के लिए यह अपनी सत्ता हासिल करने का सुनहरा मौका था।

नाना साहेब ने सैनिकों को इकट्ठा किया और कानपुर से अंग्रेजी छावनी को बाहर निकाल दिया। उन्होंने अपने आपको मुगल बादशाह का गवर्नर घोषित कर दिया।

बिरजिस कद्र ने अपने आप को लखनऊ का नवाब घोषित कर दिया और बहादुर शाह की अधीनता स्वीकार कर ली। वह नवाब वाजिद अली शाह के बेटे थे। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह को हवा देने में सक्रिय काम किया।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ खड़ी हो गईं। वे नाना साहेब के जेनरल तात्या टोपे के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने लगीं।

विद्रोह का फैलाव

अंग्रेजों की तुलना में विद्रोहियों की संख्या बहुत बड़ी थी। अंग्रेजों को कई लड़ाइयों में मुँह की खानी पड़ी। लोगों को लगने लगा कि अंग्रेजी राज खत्म ही होने वाला था। इसी उत्साह में लोग विद्रोहियों का साथ देने लगे। अवध के क्षेत्र में जन विद्रोह सबसे अधिक था।

नये नेताओं का उदय

विद्रोह के दौरान कई नये नेताओं का उदय हुआ। फैजाबाद में अहमदुल्ला शाह नाम के एक मौलवी थे। उन्होने भविष्यवाणी की कि अंग्रेजी राज का अंत निकट है। उन्हें लोगों का बड़ा समर्थन मिला हुआ था। वे अंग्रेजों से लड़ने के लिए लखनऊ पहुँच गये।

दिल्ली से गोरे लोगों का सफाया करने के उद्देश्य से वहाँ बड़ी संख्या में गाजी (धार्मिक योद्धा) पहुँच गये। बरेली के बख्त खान नाम के एक सिपाही ने एक बड़ी टुकड़ी की कमान अपने हाथों में ले ली। बिहार के एक बूढ़े जमींदार थे जिनका नाम था कुँवर सिंह। कुँवर सिंह ने कई महीनों तक अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी।