शिक्षा में सुधार
अब हम स्थानीय स्कूलों के बारे में जानेंगे जो मैकॉले के सिस्टम के आने से पहले भारत में प्रचलित थे।
स्थानीय स्कूल
स्कॉटलैंड के मिशनरी विलियम एडम ने बिहार और बंगाल के जिलों का सर्वे करके 1830 के दशक में स्थानीय स्कूलों पर एक रिपोर्ट तैयार किया। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार और बंगाल में एक लाख से अधिक पाठशालाएँ थीं। ऐसी हर पाठशाला में 20 से कम ही विद्यार्थी होते थे। लेकिन ऐसी पाठशालाओं में पढ़ने वाले छात्रों की कुल संख्या 20 लाख से ऊपर थी। ऐसी पाठशाला को कोई धनी आदमी, या स्थानीय समुदाय या फिर कोई गुरु चलाता था।
पाठशाला में शिक्षा का सिस्टम काफी लचीला था। पाठशाला की कोई निश्चित फीस या छपी हुई किताबें नहीं होती थी। कोई भवन, बेंच डेस्क, अलग क्लास, रॉल-कॉल रजिस्टर, टाइम टेबल और नियमित इम्तिहान वगैरह नहीं होते थे। छात्रों को कभी बरगद के पेड़ के नीचे, किसी दुकान या मंदिर में या गुरुजी के घर में पढ़ाया जाता था।
फीस की राशि माता पिता की आय पर निर्भर करती थी। धनी लोग तो भुगतान कर देते थे लेकिन गरीब के बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलती थी। गुरु ही सिलेबस तय करता था और मौखिक पढ़ाई होती थी। हर बच्चे की जरूरत के हिसाब से उसे पढ़ाया जाता था। छात्रों को अलग अलग क्लास में नहीं बाँटा जाता था। सभी बच्चे एक साथ बैठते थे और गुरु हर बच्चे की समझ के हिसाब से उसे पढ़ाता था।
स्थानीय जरूरतों के हिसाब से यह सिस्टम अनोखे ढ़ंग से लचीला था। फसल की कटनी के समय बच्चे अक्सर खेतों पर काम करते थे। इसलिए कटनी के समय क्लास नहीं होती थी। कटनी का मौसम समाप्त होते ही क्लास शुरु हो जाते थे।
नया नियम नया रूटीन
1854 में वर्नाकुलर एजुकेशन सिस्टम को सुधारने के लिए एक निर्णय लिया गया। कम्पनी ने कई पंडितों को नौकरी पर रख लिया। हर ऐसे पंडित को चार से पाँच स्कूलों की जिम्मेदारी दी गई। हर गुरु को टाइम टेबल के हिसाब से क्लास लेने को कहा गया और समय समय पर रिपोर्ट भेजने को कहा गया। टेक्स्टबुक की शुरुआत हुई और साथ में वार्षिक परीक्षा का सिस्टम भी शुरु हुआ। छात्रों से नियमित रूप से फीस देने, क्लास में उपस्थित रहने और अनुशासन के नये नियमों को मानने के लिए कहा गया।
कुछ पाठशालाओं ने नये नियम को मानना शुरु कर दिया, जबकि कुछ अपनी स्वतंत्रता चाहते थे। जिन्होंने नये नियम को मानना शुरु किया उन्हें सरकार से अनुदान मिलने लगा। जो इस सिस्टम में नहीं आना चाहते थे उन्हें कोई अनुदान नहीं मिलता था। समय बीतने के साथ उन गुरुओं के लिए प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहना मुश्किल साबित होने लगा जो अपनी स्वतंत्रता नहीं खोना चाहते थे।
नये सिस्टम का सबसे बुरा असर किसानों के बच्चों पर पड़ा, खासकर गरीब बच्चों पर। ऐसे बच्चों को फसल की कटाई के वक्त क्लास छोड़ना पड़ता था, जिसे अनुशासनहीनता के तौर पर देखा जाता था।
राष्ट्रीय शिक्षा का एजेंडा
कई भारतीय विचारकों को भी एक सुव्यवस्थित शिक्षा व्यवस्था की जरूरत महसूस होती थी। कुछ यूरोपीय सिस्टम के पक्षधर थे, जबकि कुछ पारंपरिक भारतीय सिस्टम की वकालत करते थे।
महात्मा गांधी
गांधीजी का मानना था कि उपनिवेशी शिक्षा ने भारत के लोगों के अंदर हीन भावना भर दी थी। उन्हें लगता था कि एक बार अंग्रेजी शिक्षा पा लेने का बाद इंसान हर ब्रिटिश चीज को बेहतरीन समझने लगता है। वह ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे जिससे भारत के लोग अपनी पुरानी विरासत और संस्कृति को समझ पाएँ। उन्हें लगता था कि केवल लिखना और पढ़ना सीख लेने से कोई शिक्षित नहीं हो जाता है। वे कहते थे कि कौशल का विकास और जीवन के नैतिक और जमीनी भावनाओं की समझ शिक्षा के लिए कहीं अधिक जरूरी होती है।
रवींद्रनाथ टैगोर
गुरुदेव को लगता था कि ब्रिटिश स्कूलों का माहौल दम घोटने वाला होता है। ऐसे वातावरण में बच्चे की रचनात्मकता मर जाती है। टैगोर ने कलकत्ता के पास शांतिनिकेतन नाम से एक स्कूल की शुरुआत की। स्कूल को ग्रामीण परिवेश में खोला गया ताकि छात्र प्रकृति के नजदीक रहें। उन्हें लगता था कि बच्चों को उनकि नैसर्गिक रचनात्मकता को खोजने के छोड़ देना चाहिए।