व्यापार से साम्राज्य तक
बंगाल की दीवानी
मीर जाफर की मृत्यु के बाद मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने कम्पनी को बंगाल का दीवान बना दिया। कम्पनी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। दीवानी मिल जाने से उसे बंगाल के विशाल राजस्व की चाभी मिल गई।
उसके पहले तक कम्पनी जो भी सामान भारत में खरीदती थी उसका भुगतान सोने या चांदी के रूप में करना होता था जो कि ब्रिटेन से मंगाई जाती थी। इससे ब्रिटेन के खजाने पर बहुत अधिक दबाव पड़ता था। प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटेन के खजाने का दबाव कुछ हलका हुआ था। बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन के खजाने को पूरी राहत मिल गई।
बढ़ता साम्राज्य
कम्पनी ने किसी भी इलाके पर सीधे सीधे सैनिक हमला करने से हमेशा ही परहेज किया। उसके बदले में कम्पनी ने तरह तरह के राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक तरीकों की मदद से किसी राज्य पर कब्जा किया।
बक्सर की लड़ाई के बाद कम्पनी ने भारतीय राजाओं के यहाँ अपने रेजिडेंट तैनात करना शुरु किया। उनका काम था कम्पनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें बढ़ावा देना। रेजिडेंट अक्सर राज्यों के आंतरिक मामलों में दखल देते थे। वे उत्तराधिकारी और मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति को भी प्रभावित करने लगे थे।
सहायक संधि
इस संधि के अनुसार, किसी भी भारतीय राजा को अपनी सेना रखने का अधिकार नहीं था। कम्पनी की सेना तैनात की जाती थी और उस संधि सेना के लिए राजा को भुगतान करना होता था। यदि कोई राजा समय पर भुगतान नहीं कर पाता था थो उसके इलाके का एक हिस्सा जुर्माने के तौर पर कब्जे में ले लिया जाता था। इसी तरह से अवध और हैदराबाद के इलाकों को कम्पनी ने हथिया लिया था।
टीपू सुल्तान
हैदर अली (1761-1782) और टीपू सुल्तान (1782-1799) के शासन काल में मैसूर काफी शक्तिशाली बन गया। मलाबार के तट से होने वाले व्यापार पर मैसूर का कब्जा था। टीपू सुल्तान ने 1785 में मैसूर के बंदरगाहों से चंदन, काली मिर्च और इलाइची के निर्यात पर रोक लगा दी थी। उसने कम्पनी से व्यापार करने के लिए व्यापारियों को रोक दिया था। टीपू सुल्तान के फ्रांसीसियों से अच्छे रिश्ते थे। फ्रांसीसियों की मदद से टीपू ने एक आधुनिक सेना बना ली थी।
एंग्लो-मैसूर युद्ध
कम्पनी हर हाल में मैसूर के शासकों को हराना चाहती थी। अंग्रेजों और मैसूर के बीच चार लड़ाइयाँ (1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799) हुईं। चौथी लड़ाई में अंग्रेजों को कामयाबी हाथ लगी। इस लड़ाई को श्रीरंगपट्म की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई में टीपू सुल्तान की मौत हो गई और अंग्रेजों ने वोडियार राजवंश को मैसूर की कमान सौंप दी। यह भी एक सहायक संधि वाला राज्य बन गया।
मराठों के साथ लड़ाई
अठारहवीं सदी के आखिर में मराठे कई राज्यों में बँटे हुए थे और हर राज्य का अपना अलग सरदार हुआ करता था। ये सरदार अलग-अलग वंशों से आते थे जैसे कि सिंधिया, होलकर, गायकवाड़, भोंसले, आदि। ये सारे सरदार के कंफेडरेशी (राज्यमंडल) का हिस्सा होते थे, जिसका नेतृत्व पेशवा के हाथों में होता था। पेशवा पूना में रहते थे और उस कंफेडरेशी की सेना और प्रशासन के मुखिया होते थे।
अंग्रेजों और मराठों के बीच कई युद्ध हुए। पहली लड़ाई में कोई विजेता नहीं बना और वह लड़ाई 1782 में सालबाई संधि के साथ समाप्त हुई। दूसरी लड़ाई (1803-05) कई मोर्चों पर हुई। उस लड़ाई में अंग्रेजों ने उड़ीसा और यमुना के उत्तर के इलाकों पर कब्जा जमा लिया। तीसरी लड़ाई (1817-19) में अंग्रेजों ने मराठों को बुरी तरह पराजित कर दिया। पेशवा को हटा दिया गया और कानपुर के निकट बिठूर में पेंशन पर भेज दिया गया।