ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन
नील की बढ़ती मांग
उष्णकटिबंधीय जलवायु नील की खेती के लिए उपयुक्त होती है। तेरहवीं सदी से ही इटली, फ्रांस और ब्रिटेन में भारत की नील का इस्तेमाल होने लगा था। बहुत अधिक कीमत होने के कारण भारत की नील बहुत कम मात्रा में ही यूरोप के बाजारों में पहुँच पाती थी।
बैंगनी और नीला डाई बनाने के लिए एक और पौधे का भी इस्तेमाल होता था जिसका नाम है वोड। यह शीतोष्ण जलवायु में उगता है इसलिए यूरोप में आसानी से मिलता था। वोड की खेती उत्तरी इटली, दक्षिणी फ्रांस और जर्मनी तथा ब्रिटेन के कुछ भागों में होती थी। यूरोप के वोड उत्पादक नील से परेशान थे और अपनी सरकारों से नील के निर्यात पर बैन लगाने की मांग कर रहे थे।
लेकिन रंगरेज लोग नील को अधिक पसंद करते थे। वोड से उतना चटख रंग नहीं मिल पाता था जितना कि नील से। इसलिए सत्रहवीं शताब्दी से ही यूरोप के वस्त्र निर्माता सरकार पर नील के निर्यात पर से पाबंदी हटाने के लिए दबाव डालने लगे थे।
कैरेबियन द्वीप के सेंट डोमीनिक में फ्रांसीसियों ने नील की खेती शुरु की थी। इसी तरह पुर्तगालियों ने ब्राजील में, अंग्रेजों ने जमैका में और स्पेनियों ने वेनेजुएला में नील की खेती शुरु की। उत्तरी अमेरिका के कई भागों में भी नील की खेती शुरु हो चुकी थी।
अठारहवीं सदी के अंत से ब्रिटेन में औद्योगीकरण शुरु हो चुका था और कपास का उत्पादन कई गुना बढ़ चुका था। इससे कपड़े रंगने की डाई की मांग तेजी से बढ़ी थी। कई कारणों से वेस्ट इंडीज और अमेरिका से नील की सप्लाई रुक चुकी थी। 1783 से 1789 के बीच दुनिया में नील का उत्पादन आधा हो गया था। इसलिए भारत के नील की मांग बढ़ने लगी थी।
भारत में नील की खेती
कम्पनी भारत में नील की खेती को बढ़ाने के तरीके ढ़ूँढ़ रही थी। अठारहवीं सदी के आखिरी दशक से बंगाल में नील की खेती तेजी से बढ़ी। 1788 में ब्रिटेन में आयात होने वाले नील का केवल 30 प्रतिशत भारत से आता था। 1810 में यह बढ़कर 95 प्रतिशत हो गया।
कम्पनी के अफसर और कई कॉमर्शियल एजेंट मुनाफा कमाने के चक्कर में नील की खेती में पैसे लगा रहे थे। कई अफसरों ने नील के धंधे पर ध्यान देने के चक्कर में नौकरी भी छोड़ दी थी। अवसर का फायदा उठाने के खयाल से स्कॉटलैंड और इंगलैंड से कई लोग भारत आकर नील की खेती करने लगे थे। उस समय नील की खेती करने के लिए कम्पनी और बैंक कर्ज दे रहे थे।
नील की खेती के दो तरीके थे, निज खेती और रैयत खेती।
निज खेती
इस सिस्टम में लोग उस जमीन पर खेती करते थे जिसपर उनका सीधा हक होता था। खेती करने वाले या तो जमीन खरीदते थे या किसी जमींदार से किराये पर लेते थे। ऐसे लोग मजदूरों को काम पर लगाते थे।
निज खेती की समस्याएँ
- नील की खेती केवल उपजाऊ जमीन पर ही संभव थी। लेकिन उपजाऊ जमीन वाले क्षेत्रों में सघन आबादी थी और जमीन के छोटे टुकड़े ही मिल पाते थे। इसलिए निज खेती में खेती का क्षेत्र बढ़ाना बहुत मुश्किल था।
- लोग नील की फैक्ट्री के आस पास जमीन लेना पसंद करते थे। ऐसा करते हुए अक्सर स्थानीय किसानों को निर्वासित कर दिया जाता था। किसानों में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा था।
- किसी भी बड़े बागान के लिए बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत होती थी। नील के खेतों पर काम करने का मौसम ऐसे समय में आता था जब किसान धान खेती में व्यस्त रहते थे। इसलिए नील की खेती के लिए मजदूर जुटाना एक मुश्किल काम था।
- बड़े पैमाने पर नील की खेती के लिए बड़ी संख्या में हल और बैलों की जरूरत पड़ती थी। इतनी बड़ी संख्या में हलों की व्यवस्था करना एक बड़ी समस्या होती थी। किसानों के हल और बैल धान की खेती में व्यस्त रहते थे। इसलिए उन्हें भाड़े पर लेना असंभव था।
- इन समस्याओं के कारण उन्नीसवीं सदी के अंत तक बागान मालिक निज खेती का क्षेत्र बढ़ाने पर जोर नहीं देते थे। इसलिए नील की खेती का 25 प्रतिशत से भी कम हिस्सा निज खेती द्वारा होता था।
रैयती खेती
इस सिस्टम में नील की खेती रैयतों द्वारा की जाती थी। बागान मालिक रैयतों से एक सट्टा या समझौता पर दस्तखत कराते थे। कभी कभी वे गाँव के मुखिया को रैयत के नाम पर दस्तखत करने के लिए बाध्य करते थे। सट्टे पर दस्तखत करने के बाद रैयत को बागान मालिक से कैश में एडवांस मिल जाता था। कर्ज लेने के बाद रैयत को कम से कम 25 प्रतिशत जमीन पर नील की खेती करनी पड़ती थी। बीज और अन्य उपकरण बागान मालिक उपलब्ध कराते थे। काश्तकार का काम था मिट्टी तैयार करना, बीज बोना और फसल की देखभाल करना। लेकिन बागान मालिकों द्वारा सस्ते में नील खरीदे जाने के कारण रैयत हमेशा कर्ज के चक्र में फँसा रहता था।
नील विद्रोह
मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने नील उगाने से मना कर दिया। रैयतों ने बागान मालिकों को किराया देने से मना कर दिया और नील की फैक्ट्री पर आक्रमण करने लगे। वे तलवार, भाले, तीर और धनुष से लैस होकर आते थे। महिलाएँ भी बर्तन, कलछी, आदि लेकर उस लड़ाई में शामिल हो जाती थीं। जो लोग बागान मालिकों के लिए काम करते थे उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। गुमाश्ता जब लगान वसूलने आते थे तो उनकी पिटाई हो जाती थी। बागान मालिकों के एजेंट को गुमाश्ता कहते थे।
कई गाँवों के प्रधानों ने लठियाल के खिलाफ नील किसानों को एकजुट कर दिया था। प्रधान इस बात पर गुस्सा थे कि उन्हें सट्टे पर दस्तखत करने के लिए बाध्य किया गया था। कुछ जमींदार इसलिए गुस्से में थे कि बागान मालिकों का प्रभुत्व बढ़ने लगा था और लंबे समय की लीज पर जमीन देने के लिए बाध्य किया जाता था। इसलिए कुछ जमींदार भी उस विद्रोह में शामिल हो गये थे।
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार किसी भी अन्य विद्रोह को लेकर चिंतित रहती थी। जैसे ही नील विद्रोह की खबर फैली, लेफ्टिनेंट गवर्नर ने 1859 की सर्दियों में उस इलाके का दौरा किया। रैयत ने इसे अपने लिए सहानुभूति के तौर पर देखा। उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार उनके संघर्ष का समर्थन करेगी।
जब विद्रोह फैलने लगा तो कलकत्ता से कई बुद्धीजीवी उन इलाकों में पहुँच गये। वे रैयतों और नील की खेती के नकारात्मक पहलुओं पर लिखने लगे।
बागान मालिकों की सुरक्षा के लिए सरकार ने सेना बुला ली। नील की खेती के सिस्टम की जाँच करने के लिए एक नील आयोग का गठन हुआ। कमीशन ने बागान मालिकों को दोषी करार दिया। कमीशन ने रैयत से कहा कि पुराने सट्टे का सम्मान करें और उसके बाद वे नील की खेती करने या न करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र थे।
विद्रोह के बाद
उस विद्रोह के बाद बंगाल में नील की खेती तेजी से गिर गई। अब बागान मालिकों ने बिहार पर ध्यान देना शुरु किया। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में कृत्रिम डाई के आ जाने से बिजनेस पर बुरा असर पड़ा। फिर भी बागान मालिक उत्पादन बढ़ाने में कामयाब रहे। जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे उन्हें चम्पारण के नील किसानों की दुर्दशा के बारे में बताया गया। महात्मा गांधी 1917 में चम्पारण के दौरे पर गए और नील के किसानों के समर्थन में आंदोलन शुरु किया।