कपड़ा और स्टील
बुनकर कौन थे?
बुनकर अक्सर उन समुदायों के लोग होते थे जिन्हें बुनाई के काम में महारत हासिल थी। बुनाई का हुनर उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिला था। बुनकर समुदायों के कुछ उदाहरण हैं बंगाल के तांती, उत्तरी भारत के जुलाहा और मोमिन, और दक्षिण भारत के कैकोल्लार और देवांग। बुनाई का काम अक्सर पुरुष ही करते थे।
कताई का काम औरतों द्वारा किया जाता था। कताई के पारंपरिक उपकरण थे चरखा और तकली। चरखे से धागा काता जाता और तकली पर उसे लपेटा जाता था।
रंगाई का काम रंगरेज करते थे, जो एक विशेष समुदाय से आते थे। प्रिंटिंग का काम चिप्पीगर करते थे जो ठप्पे से छपाई करने में माहिर होते थे। कपड़े की बुनाई और उससे जुड़े कामों में लोगों को भारी संख्या में रोजगार मिलता था।
भारतीय कपड़ा उद्योग में गिरावट
ब्रिटेन में सूती कपड़े के विकास से भारत के कपड़ा उत्पादक कई तरह से प्रभावित हुए। अब यूरोप और अमेरिका के बाजारों में भारतीय कपड़े को ब्रिटिश कपड़े से प्रतिस्पर्द्धा मिल रही थी। इंग्लैंड में बहुत अधिक आयात शुल्क होने के कारण भारत से कपड़ा निर्यात करना मुश्किल होने लगा था। इस तरह उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ब्रिटेन के सूती कपड़े ने भारतीय कपड़े को अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप के पारंपरिक बाजारों से बाहर कर दिया।
इससे भारत के हजारों बुनकर बेरोजगार हो गये। सबसे बुरा असर बंगाल के बुनकरों पर पड़ा। गाँव कि जो औरतें सूत कातकर अपनी जीविका चलाती थीं, अब बेरोजगर हो चुकी थीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में हथकरघे पर बुनाई बिलकुल बंद हो चुकी थी। कुछ ऐसे कपड़े थे जो मशीन से नहीं बन सकते थे। बारीक डिजाइन और कढ़ाई का काम मशीन से नहीं हो सकता था। वैसे डिजाइन की यूरोप में बहुत अच्छी माँग थी। इसके अलावा, ब्रिटेन के उत्पादक मोटे कपड़े नहीं बनाते थे। भारत के गरीब तबके में मोटे कपड़े बहुत लोकप्रिय थे।
कई बुनकरों ने अपना पेशा बदल लिया और खेतों पर काम करने लगे। कुछ काम की तलाश में शहर की तरफ पलायन कर गये। कुछ बुनकर अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के बागानों पर काम करने चले गये। कुछ बुनकरों बम्बई, अहमदाबाद, शोलापुर, नागपुर और कानपुर में बनी सूती कपड़े की मिलों में काम मिल गया।
सूत मिलों की शुरुआत
सबसे पहला सूती कपड़ा मिल बम्बई में 1854 में शुरु हुआ। अठारहवीं सदी की शुरुआत से कपास के निर्यातक के रूप में बम्बई का बंदरगाह महत्वपूर्ण हो चुका था। बम्बई के आस पास के इलाकों में कपास की अच्छी खेती होती थी। इसलिए नई मिलों के लिए कच्चा माल आसानी से उपलब्ध था।
1900 तक बम्बई में 84 से अधिक मिलें काम कर रही थीं। इनमें से कई मिलों की स्थापना पारसी और गुजराती व्यवसायियों ने की थी। उन्होंने चीन के साथ व्यापार करके अच्छे पैसे बनाये थे। सूती कपड़ा मिलें अन्य शहरों में भी खुलने लगी थीं, जैसे की अहमदाबाद और कानपुर में।
सूती कपड़ा मिलों की वृद्धि से काफी लोगों को रोजगार मिला। गरीब किसान, काश्तकार और खेतिहर मजदूर हजारों की संख्या में उन मिलों में काम करने के लिए शहर की ओर पलायन करने लगे।
अपने शुरुआती दिनों में भारत के कपड़ा उद्योग को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ब्रिटेन से सस्ते कपड़े के आयात से बहुत मुश्किल होती थी। अधिकतर यूरोपीय देशों की सरकारें अपने स्थानीय उद्योग को बढ़ावा देने के लिए भारी आयात शुल्क लगाती थीं। भारत की उपनिवेशी सरकार यहाँ के उद्योग को ऐसा कोई संरक्षण नहीं देती थी।
पहले विश्व युद्ध के दौरान भारत के सूती कपड़ा उद्योग को फलने फूलने का बढ़िया मौका मिला। युद्ध के दौरान ब्रिटेन से होने वाला आयात गिर गया और भारत की मिलों को सेना के लिए कपड़े बनाने के ऑर्डर मिलने लगे।