वन्य समाज और उपनिवेशवाद
नये व्यवसाय
नये व्यवसायों पर मुख्य रूप से अंग्रेजों का और कुछ भारतीय व्यापारियों का नियंत्रण था। लेकिन वन में रहने वाले लोगों को लिए कोई नया रास्ता नहीं था। झारखंड, ओडिसा और छत्तीसगढ़ के कई लोगों को असम और पश्चिम बंगाल के चाय बगानों में काम करने को बाध्य होना पड़ा। चाय बागानों में कड़ा परिश्रम करना पड़ता था और बहुत कम पगार मिलती थी। उन्हें अपने घर वापस जाने के लिए छुट्टी भी नहीं मिलती थी। कई खानबदोश आदिवासी अभी भी वन उत्पादों के धंधे में लगे हुए थे।
बस्तर की कहानी
बस्तर एक जिला है तो छत्तीसगढ के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यहाँ मरिया, मुरिया गोंड, धुरबा, भतरा और हलबा नामक आदिवासी समुदाय रहते हैं। वे अलग अलग भाषाएँ बोलते हैं लेकिन उन सबके रीति रिवाज एक जैसे हैं। ये आदिवासी हमेशा से वनों पर निर्भर रहते आये हैं और इसलिए वनों के लिए उनके मन में बहुत सम्मान है। उन्हें लगता है कि सबकुछ धरती से मिलता है इसलिए वे धरती पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। हर गाँव का व्यक्ति अपने गाँव की सीमा के भीतर पड़ने वाले वन से ही जरूरत का सामान लेता है। यदि कभी किसी दूसरे गाँव से कुछ लेना हो तो बदले में एक छोटा शुल्क दिया जाता है जिसे देवसारी या दांड या मान कहा जाता है।
लोगों का भय
जब वनों के दो तिहाई हिस्से को आरक्षित वन घोषित कर दिया गया और घुमंतू खेती, शिकार और वन उत्पाद के संग्रह पर प्रतिबंध लग गया तो इससे बस्तर के लोगों को बड़ी परेशानी हुई। कुछ लोगों को आरक्षित क्षेत्र में रहने की अनुमती मिल गई। लेकिन बदले में उन्हें वन विभाग के लिए बेगार खटना पड़ता था। ऐसे लोगों को लकड़ी की कटाई और ढ़ुलाई करनी होती थी और जंगल को आग से बचाना होता था। इस तरह के गाँवों को ‘वन ग्राम’ का नाम दिया गया।
लेकिन ज्यादातर लोगों को गाँव छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। 1899-1900 और 1907-1908 में पड़ने वाले अकाल से स्थिति और भी खराब हो गई। अब लोग गोलबंदी करने लगे। इसके लिए सबसे पहले धुरबा आदिवासियों ने पहल की। उनका कोई नेता नहीं था लेकिन नेथानार गाँव का गुंडा धुर नाम का व्यक्ति काफी प्रभावशाली था। हर गाँव ने विरोध के खर्चे के लिए चंदा दिया और 1910 में विरोध शुरु हुआ। विद्रोहियों ने बाजार में और अफसरों और व्यापारियों के घरों में लूटपाट की। उन्होंने स्कूलों और थानों में आग लगा दी।
अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए सिपाही भेजे। आदिवासी नेताओं के साथ बातचीत विफल हो गई और अंग्रेजों के सिपाहियों उन्हें घेर लिया और गोली चला दी। लोग भाग कर जंगलों में छुप गये और गाँव के गाँव वीरान हो गये। विद्रोह को कुचलने में तीन महीने (फरवरी से मई) लग गये। इसका लाभ यह हुआ कि वनों को आरक्षित करने की प्रक्रिया कुछ समय के लिए टाल दी गई। बाद में जितनी योजना बनी थी उससे आधे वन को ही आरक्षित किया गया। इस तरह से विद्रोहियों को एक बड़ी कामयाबी मिली।
जावा के जंगल
इंडोनेशिया में स्थित जावा एक डच उपनिवेश था। यहाँ पर भी उपनिवेशी शासकों ने वनों के लिए नये कानून बनाये।
जावा के लकड़हारे
जावा का कलांग नाम का समुदाय पेड़ काटने में माहिर था और घुमंतू खेती करता था। कलांग लोगों की प्रतिभा वहाँ के राजा के लिए बहुमूल्य थी, क्योंकि महलों को बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत पड़ती थी। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 1755 में जावा की माताराम रियासत का बँटवारा हुआ था तो 6,000 कलांग परिवारों को दोनों रियासतों में बराबर बाँटा गया था।
जब अठारहवीं सदी में डच शासकों ने वनों पर कब्जा करना शुरु किया तो उन्होंने कलांग लोगों को भी अपने कब्जे में लेने की कोशिश की। कलांग लोगों ने इसके विरोध में 1770 में डच किले पर आक्रमण कर दिया लेकिन उनके विद्रोह को कुचल दिया गया।
डच कानून
जब डच शासकों ने नये वन कानून लागू किये तो गाँव वालों को वन संसाधन से वंचित कर दिया गया। कुछ खास कामों (नाव या घर बनाने) के लिए ही लकड़ी काटने की अनुमति थी। नये पौधों वाले क्षेत्र में मवेशी चराने पर प्रतिबंध था। लकड़ी की ढ़ुलाई, जंगल के रास्ते घोड़ा गाड़ी से जाना, आदि पर भी प्रतिबंध लग गया। फिर रेलवे और जहाज उद्योग की माँग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई शुरु हुई। 1882 में जावा से 280,000 स्लीपर का निर्यात हुआ था।
जो लोग वनों में खेती करते थे उनसे लगान वसूली होने लगी। कुछ लोगों को इससे छूट दी गई लेकिन बदले में उन्हें पेड़ों की कटाई और ढ़ुलाई के लिए बेगार करना होता था और अपनी भैंसे मुहैया करनी होती थीं। इस सिस्टम का नाम था ब्लैंडॉन्गडिएंस्टेन।
सामिन की चुनौती
1890 के आस पास, रांदुब्लातुंग गाँव के सुरोंतिको सामिन ने वनों पर सरकारी कब्जे पर सवाल करना शुरु कर दिया। वह अपने लोगों को उपनिवेशी शासकों की गलत नीतियों के बारे में समझाने लगा। फिर कई परिवार इस विद्रोह में शामिल हो गये। जब कोई डच सर्वेयर आता था तो लोग विरोध में अपनी जमीनों पर लेट जाते थे। कई लोगों ने टैक्स देने, फाइन देने और काम करने से मना कर दिया।
युद्ध का असर
दोनों विश्व युद्धों का वनों पर बहुत बुरा असर हुआ। ब्रिटेन की युद्धकालीन जरूरतों को पूरा करने के लिए अब और भी अधिक पेड़ काटे जाने लगे।
जापानी कब्जे से ठीक पहले डच लोगों ने भष्म कर भागो नीति अपना ली। उन्होंने आरा मिलों और लकड़ी के लट्ठों में आग लगा दी ताकि वे जापानियों के हाथों में ना पड़ जाएँ। बाद में जापानियों ने भी वनों का दोहन जारी रखा। वे ग्रामीणों को पेड़ काटने के लिए बाध्य करते थे। कई ग्रामीणों के लिए यह अपनी खेती की जमीन को बढ़ाने का अच्छा मौका था।
वर्तमान स्थिति: अस्सी के दशक से हर देश की सरकारों की समझ में आने लगा कि वैज्ञानिक वानिकी और वन संरक्षण कानूनों से टकराव ही हुए थे। अब पर्यावरणविदों और संरक्षणविदों को भी लगने लगा था कि वन कानूनों में आमूल चूल बदलाव की जरूरत है। इसलिए अब वन कानून पहले से बेहतर हुए हैं और वन में रहने वाले लोगों को कम परेशान करते हैं।