संस्थाओं का कामकाज
किसी भी देश की सरकार चलाने के लिए एक विशाल टीम की जरूरत पड़ती है। उस टीम में राजनेताओं के अलावा अन्य लोग होते हैं जो अपने काम में तकनीकी अनुभव और कुशलता रखते हैं। ये सभी लोग मिलकर कई संस्थाओं का निर्माण करते हैं। इन संस्थाओं के जरिए ही सरकार लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करती है। इस लेसन में आप भारत सरकार की मुख्य संस्थाओं के बारे में पढ़ेंगे। आप उन संस्थाओं का संक्षिप्त परिचय और उनके अधिकारों के बारे में पढ़ेंगे। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि विभिन्न संस्थाओं की जरूरत क्या है?
संस्थाओं की जरूरत
सरकार पर लोगों को विभिन्न चीजें और सुविधाएँ देने की जिम्मेदारी है। लोगों को सुरक्षा देना, लोगों का कल्याण, आदि सरकार की जिम्मेदारी है। विभिन्न जनकल्याण योजनाओं के लिए सरकार को पैसों की जरूरत पड़ती है। साथ में सरकारी मशीनरी को चलाने के लिए भी पैसों की जरूरत पड़ती है। इसलिए सरकार टैक्स वसूलती है ताकि जरूरी पैसे इकट्ठे हो सकें।
सरकार के कई अंग और विभाग होते हैं और सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारी होती है। जिम्मेदारियाँ बाँटने से श्रम का विभाजन होता है और काम सुचारु रूप से चलता है। इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि किसी एक व्यक्ति या एक संस्था में सत्ता का केंद्रीकरण नहीं होता।
सरकार के विभिन्न विभागों और अंगों को हम सरकारी संस्था कहते हैं। सरकार को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न संस्थाओं का निर्माण जरूरी होता है। सिविल मामलों के अधिकतर मुद्दों के लिए तीन मुख्य संस्थाएँ काम करती हैं, जिनके नाम हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।
- प्रधानमंत्री और कैबिनेट सभी नीतिगत मुद्दों पर अहम फैसले लेती है।
- कैबिनेट द्वारा लिए गए फैसलों को लागू करने का काम सिविल सर्वेंट या नौकरशाहों पर होता है।
- जब भी सरकार और जनता के हितों के बीच बिवाद होता है तो उसके निबटारे का काम सर्वोच्च न्यायालय का होता है।
संस्थाओं से लाभ: विभिन्न संस्थाओं के कारण किसी भी फैसले को लेने से पहले आम सहमति सुनिश्चित हो पाती है। इससे जल्दी में लिए गए गलत फैसलों की रोकथाम होती है।
संस्थाओं से हानि: विभिन्न संस्थाओं के होने से फैसले लेने में वक्त लगता है। इससे कई लोगों को परेशानी हो सकती है।
संसद
भारत में संसद के दो सदन हैं। एक का नाम राज्य सभा (काउंसिल ऑफ स्टेट्स) है और दूसरे का नाम है लोक सभा (काउंसिल ऑफ पीपुल्स)। राज्य सभा को अपर हाउस और लोक सभा को लोवर हाउस कहते हैं लेकिन लोकसभा अधिक शक्तिशाली होती है। अपर और लोवर हाउस जैसा नामकरण केवल परंपरा के कारण चला आ रहा है। दो सदनों वाली विधायिका को बाइकैमरल लेजिस्लेचर कहते हैं। भारत के कई राज्यों में दो सदनों वाली विधायिका हैं और उन सदनों के नाम हैं विधान सभा और विधान परिषद। विधान सभा और लोक सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा होता है। विधान परिषद और राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव परोक्ष रूप से होता है।
लेजिस्लेचर या विधायिका
किसी भी लोकतांत्रिक देश में कानून बनाने का सर्वोच्च अधिकार संसद का होता है। कानून बनाने की प्रक्रिया को लेजिस्लेशन कहते हैं इसलिए सदन को लेजिस्लेचर कहते हैं। लेजिस्लेचर या विधायिका नया कानून बना सकती है, पुराने कानून को बदल सकती है या फिर उसे समाप्त कर सकती है।
संसद का नियंत्रण
पूरी दुनिया में सरकार चलाने वालों पर संसदों का कुछ न कुछ नियंत्रण अवश्य रहता है। भारत में संसद का नियंत्रण पूरा पूरा और प्रत्यक्ष है। कोई भी सरकार तभी तक फैसले लेने का अधिकार रखती है जब तक कि उसे संसद का पूरा समर्थन प्राप्त हो।
सरकार के पास जो भी पैसे हैं उनपर संसद का नियंत्रण होता है। अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में जनता के पैसे को संसद की अनुमति से ही खर्च किया जा सकता है।
किसी भी देश में जनता के मुद्दों और राष्ट्रीय नीतियों पर बहस और विचार विमर्श के लिए संसद ही सर्वोच्च मंच होता है। संसद को किसी भी मुद्दे पर जानकारी मांगने का अधिकार होता है।
किसी भी नियम को दोनों सदनों से पास करना जरूरी होता है। जब कोई बिल दोनों सदनों से पास हो जाता है तभी वह कानून बन सकता है।
संयुक्त बैठक: यदि किसी मुद्दे पर दोनों सदनों के बीच मतभेद हो जाता है तो फैसला लेने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। चूँकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या अधिक होती है इसलिए संयुक्त बैठक में लोकसभा के मत की जीत की संभावना होती है।
पैसे वाले बिल: पैसों के मामले में लोकसभा के पास अधिक शक्ति होती है। जब बजट या पैसे से संबंधित कोई अन्य कानून लोकसभा से पास हो जाता है तो राज्य सभा इसे खारिज नहीं कर सकती है। राज्य सभा केवल उस बिल को 14 दिनों के लिए रोक सकती है या उसमें कुछ सुझाव दे सकती है। यह लोकसभा के ऊपर है कि उस सुझाव को माने या ना माने।
अविश्वास प्रस्ताव: मंत्रीपरिषद पर लोकसभा का नियंत्रण होता है। जिस व्यक्ति को लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है उसे ही प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। यदि कभी लोकसभा कहती है कि उसके सदस्यों को मंत्रीपरिषद पर अविश्वास है तो प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ता है। राज्य सभा के पास यह अधिकार नहीं है।
कार्यपालिका के प्रकार
राजनैतिक कार्यपालिका
प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद मिलकर राजनैतिक कार्यपालिका का गठन करते हैं। मंत्रीपरिषद का काम होता है सरकार के कार्यक्रमों और नीतियों को मूर्तरूप देना या क्रियांवयन करना। इसलिए मंत्रीपरिषद को कार्यपालिका कहा जाता है। राजनैतिक कार्यपालिका के सदस्य जनता द्वारा चुनकर आते हैं।
स्थायी कार्यपालिका
यह नौकरशाओं से मिलकर बनी होती है। नौकरशाहों का चयन अखिल भारतीय सिविल सर्विसेज द्वारा होता है। सरकारें बदलने के बावजूद नौकरशाहों यानी स्थायी कार्यपालिका के कार्यकाल में कोई रुकावट नहीं आती है।
जनता को जवाबदेह होने के कारण राजनैतिक कार्यपालिका के पास स्थायी कार्यपालिका की तुलना में अधिक अधिकार होते हैं। लेकिन राजनैतिक कार्यपालिका के लोगों की तुलना में स्थायी कार्यपालिका में काम करने वाले लोग तकनीकी रूप से अधिक ज्ञानी और कुशल होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मंत्री की तुलना में विभाग के अधिकारी अधिक काबिल और कुशल होते हैं।