फ्रांसीसी क्रांति
अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस का समाज तीन समूहों में बँटा हुआ था जिन्हें इस्टेट कहते थे और उनके नाम थे, प्रथम, द्वितीय और तृतीय इस्टेट।
प्रथम इस्टेट: पादरी और चर्च के अन्य सदस्य प्रथम इस्टेट के सदस्य होते थे।
द्वितीय इस्टेट: कुलीन वर्ग के लोग द्वितीय इस्टेट के सदस्य होते थे। इस वर्ग की सदस्यता जन्म के आधार पर मिलती थी, यानि कुलीन वर्ग में जन्मा व्यक्ति इस इस्टेट का सदस्य होता था। लेकिन कुछ लोग इस वर्ग की सदस्यता खरीद भी सकते थे। कोई व्यक्ति एक भारी टैक्स चुकता करके या फिर राजपरिवार की अच्छी सेवा करके द्वितीय इस्टेट का सदस्य बन सकता था।
तृतीय इस्टेट: तृतीय इस्टेट में तीन तरह के लोग होते थे। पहले समूह में बड़े व्यवसायी, व्यापारी, कोर्ट के अधिकारी, वकील, आदि आते थे। बड़े किसान और शिल्पकार दूसरे समूह में आते थे। छोटे किसान, भूमिहीन मजदूर और नौकर चाकर तीसरे समूह में आते थे। तृतीय इस्टेट के सदस्यों को टैक्स देना पड़ता था।
टाइद और टाइल: टाइद एक धार्मिक टैक्स था जो चर्च द्वारा वसूला जाता था। टाइल में प्रत्यक्ष और परोक्ष कर शामिल थे। पादरी और कुलीन वर्ग से टैक्स नहीं लिये जाते थे। उनके पास सामंती अधिकार भी थे। तृतीय इस्टेट से टैक्स वसूलने के बाद ये सामंती टैक्स अदा करते थे।
लिव्रे: यह उस समय की फ्रांसीसी मुद्रा थी। इसे 1794 में समाप्त कर दिया गया।
फ्रांस की आर्थिक स्थिति
1714 में बूर्बों वंश का लुई XVI फ्रांस का राजा बना। तब तक लंबे समय तक चलने वाले युद्ध और वर्साय के आलीशान महल के रखरखाव के खर्चे के कारण खजाना खाली हो चुका था। इस बीच फ्रांस ने ब्रिटेन के खिलाफ होने वाली आजादी की लड़ाई में अमेरिका का साथ दिया था। अमेरिकी लड़ाई में शामिल होने के कारण फ्रांस पर 10 अरब लिव्रे से भी अधिक का कर्ज चढ़ चुका था। फ्रांस पर पहले से ही 2 अरब लिव्रे का कर्ज चढ़ा हुआ था। इन सब खर्चों की भरपाई करने के लिए राजा को टैक्स बढ़ाने को मजबूर होना पड़ा। इस बात से तीसरे इस्टेट के लोगों में काफी नाराजगी थी।
जीने का संघर्ष
फ्रांस की जनसंख्या 1715 में 23 मिलियन थी, जो 1789 में बढ़कर 28 मिलियन हो गई। जनसंख्या बढ़ने के कारण भोजन की मांग बढ़ गई। लेकिन मौसम और महामारी की चपेट में आने से अनाज का उत्पादन कम हो रहा था। इसलिए फ्रांस में पावरोटी की कीमत बढ़ गई। पावरोटी ही वहाँ के लोगों का मुख्य भोजन था। मजदूरों का वेतन तो बढ़ा लेकिन कीमतें उससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहीं थीं। इससे लोगों के सामने भुखमरी की स्थिति आ गई क्योंकि अब उनके पास पावरोटी खरीदने तक के पैसे नहीं थे।
उभरता मध्यम वर्ग
18वीं सदी में तीसरे इस्टेट के कई लोगों ने विदेशी व्यापार और सामान के उत्पादन के जरिये धन कमाये थे। इन्हें मध्यम वर्ग कहा जाता था। यह समाज में एक नया वर्ग था जिसमें कोर्ट के अधिकारी, वकील और प्रशासनिक अधिकारी, आदि शामिल थे।
वैसे तो बढ़ते टैक्स और भोजन की कमी के विरोध में किसान और मजदूरों ने कई आंदोलन किये थे लेकिन उनके पास सीमित साधन थे और ठोस कार्यक्रम का अभाव था। इसलिए उन आंदोलनों से समाज में कोई बदलाव नहीं आ पाया था। इसलिए अब सामाजिक और आर्थिक ढ़ाँचे में बदलाव की जिम्मेवारी मध्यम वर्ग पर आ गई थी। मध्यम वर्ग के लोग भी पीड़ित थे क्यों उन्हें टैक्स देना पड़ता था और पादरी तथा कुलीन वर्ग की माँग को पूरा करना पड़ता था।
मध्यम वर्ग के लोग शिक्षित थे और उनका मानना था कि जन्म के आधार पर कोई भी अधिकार और सुविधा बेमानी थे। उन्हें लगता था कि समाज में किसी को भी अपनी प्रतिभा के दम पर एक विशेष स्थान बनाने का अधिकार होना चाहिए। तत्कालीन दार्शनिकों (जॉन लॉक और ज्याँ जॉन रूसो) ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जो आजादी, समान कानून और समान अवसरों पर आधारित हो। उस जमाने में अमेरिका के तेरह उपनिवेशों को इन्हीं सिद्धांतों पर ब्रिटेन से आजादी मिली थी, जिससे फ्रांस के लोग पूरी तरह से प्रभावित थे।
तत्कालीन दार्शनिकों और राजनैतिक चिंतकों के विचार किताबों के माध्यम से लोगों तक पहुँच रहे थे। हर जगह लोग इन बातों पर चर्चा करते थे। कुछ लोग किताबों को जोर जोर से बाँचते थे ताकि अनपढ़ लोग भी उनमें लिखी बातों को जान और समझ सकें।
इस बीच लोगों में यह बात फैलने लगी कि लुई सोलहवाँ टैक्स बढ़ाना चाहता था। इससे लोगों का गुस्सा बढ़ने लगा। लोग सरकार और उसकी नीतियों के विद्रोह में सुर उठाने लगे।