पहनावे और सामाजिक इतिहास
इतिहास पढ़ते समय अक्सर हम राजाओं के बारे में पढ़ते हैं, खासकर से विजेताओं के बारे में। कभी कभार अर्थव्यवस्था के बारे में भी पढ़ाया जाता है। लेकिन पोशाकों के इतिहास का जिक्र कम ही होता है। कपड़े पहनने का पहला उद्देश्य है शरीर को मौसम की मार से बचाना। लेकिन शरीर की लाज बचाने के लिए भी कपड़े पहने जाते हैं। कपड़े की शैली समय, मौका, सामाजिक हैसियत, सांस्कृतिक मान्यताओं, आदि के हिसाब से बदलती रहती है।
इस लेसन में आप पोशाक के सामाजिक इतिहास के बारे में बढ़ेंगे। सबसे पहले आप यूरोप में पोशाक में किस तरह बदलाव आए उसके बारे में पढ़ेंगे। उसके बाद आप औपनिवेशिक भारत में पोशाक के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे।
अठारहवीं सदी से पहले यूरोप के अधिकतर लोगों की पोशाक क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग होती थी। पोशाक कैसी होगी यह इस बात पर निर्भर था कि किसी क्षेत्र में किस तरह के कपड़े उपलब्ध थे और उनकी कीमत क्या थी। इसके अलावा सामाजिक वर्ग, लिंग और हैसियत से भी कपड़े की शैली प्रभावित होती थी।
सम्पचुअरी कानून
मध्यकालीन यूरोप में ड्रेस कोड के लिए कानून भी बनते थे। इन कानूनों में ड्रेस कोड को पूरे विस्तार से बताया जाता था।1924 से लेकर 1789 की फ्रांसीसी क्रांति तक फ्रांस के लोगों को सम्प्चुअरी कानूनों का कायदे से पालन करना पड़ता था।
सम्प्चुअरी कानूनों से समाज के निचले तबके के लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करने की कोशिश की जाती थी। समाज के निचले तबके के लोगों को कई बातों की मनाही होती थी, जैसे कि विशेष कपड़े पहनना, विशेष भोजन, शराब और कुछ इलाकों में शिकार करना, आदि। इसका मतलब यह हुआ कि कपड़े के मामले में किसी की पसंद नापसंद केवल उसकी आय से नहीं बल्कि उसकी सामाजिक हैसियत से भी तय होती थी। अभिजात वर्ग के लोग ही महंगे फर, रेशम, मखमल, आदि पहन पाते थे। लेकिन फ्रांसीसी क्रांति के बाद इस तरह के अंतर लगभग समाप्त हो गए।
फ्रांसीसी क्रांति का प्रभाव
फ्रांसीसी क्रांति के दौरान जैकोबिन क्लब के सदस्य जो पतलून पहनते थे उनमें घुटन्ने नहीं होते थे। इसलिए जैकोबिन को सॉं कुलौत भी कहा जाता था यानि बिना घुटन्नों के। लोग ढ़ीले-ढ़ाले और आरामदेह पोशाक पहनने लगे थे। फ्रांसीसी झंडे में नीला, सफेद और लाल रंग होते हैं। अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करने की होड़ में लोगों के बीच ये रंग काफी लोकप्रिय थे। दूसरे राजनैतिक प्रतीक भी ड्रेस कोड का हिस्सा बन चुके थे, जैसे कि लाल टोपी (आजादी), लंबी पतलून, और तिरछी टोपी (कॉकेड)।
ऐसा नहीं है कि सम्प्चुअरी कानून का इस्तेमाल हमेशा सामाजिक भेदभाव दिखाने के लिए ही होता था। कभी कभी घरेलू उत्पादों को आयात से सुरक्षा देने के लिए भी कानून बनाए जाते थे। सोलहवीं सदी में जब इंग्लैंड में फ्रांस से आयात होने वाले मखमल से बनी टोपी लोकप्रिय हुई थी तो इंग्लैंड में एक नियम बनाया गया। इस नियम के अनुसार छ: वर्ष से अधिक आयु के हर व्यक्ति को रविवार और छुट्टियों के दिन इंग्लैंड में बनी ऊनी टोपी पहनना अनिवार्य था। यह कानून ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगों पर लागू नहीं होता था। यह कानून 22 वर्षों तक लागू रहा और इससे इंग्लैंड के ऊन उद्योग को मजबूत बनाने में काफी मदद मिली।
सम्प्चुअरी कानून के समाप्त हो जाने के बाद भी समाज के विभिन्न वर्गों में अंतर बरकरार रहा। लेकिन अब लोगों की पोशाक में अंतर केवल आय से निर्धारित होता था। फैशन, व्यावहारिकता, फूहड़ता, आदि के आधार पर विभिन्न आर्थिक तबकों के लोगों के कपड़ों की अलग अलग स्टाइल विकसित हुई।
लैंगिक आधार पर भी कपड़ों की शैली प्रभावित होती थी। पुरुषों से उम्मीद की जाती थी कि वे गंभीर, मजबूत, स्वतंत्र और आक्रामक दिखें। महिलाओं से उम्मीद की जाती थी कि वे छुई मुई, निष्क्रिय, और आज्ञाकारी दिखें।
लड़कियों को बचपन से ही स्टे में फीतों से कसकर बाँधा जाता था। स्टे एक तरह का सहारा होता है जिसे महिलाओं की ड्रेस से बाँधा जाता है ताकि उनका धड़ बिलकुल सीधा रहे। युवतियों और महिलाओं को कॉर्सेट पहनना होता था जो कि बहुत कसी हुई होती थी। कॉर्सेट पहने का मतलब था महिला के शरीर को लगातार पीड़ा झेलनी होती थी। लेकिन कॉर्सेट इसलिए पहना जाता था ताकि कमर पतली रहे और पतली कमर को खूबसूरती के लिए आदर्श माना जाता था।
महिलाओं की प्रतिक्रिया
अधिकतर औरतों के दिमाग में बचपन से ही यह बात बिठा दी जाती थी कि उन्हें समाज के मूल्यों के हिसाब से सहनशील और शर्मीली बनकर रहना है। उन्हें यह लगने लगता था कि पतली कमर बरकरार रखने के लिए दर्द सहना मामूली बात थी।
पोशाक में सुधार: उन्नीसवीं सदी से चीजें बदलने लगीं थी। 1830 के दशक से अंग्रेज महिलाओं ने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आंदोलन शुरु कर दिया था। जब महिलाओं को मताधिकार के लिए आंदोलन तेज होने लगा तो कई महिलाओं ने पोशाक में सुधार के लिए भी आंदोलन शुरु किया। महिलाओं की पत्रिकाओं ने कसी हुई पोशाकों और कॉर्सेट से होने वाले नुकसानों के बारे में लिखना शुरु किया।
अमेरिका के श्वेत आप्रवासियों में भी ऐसा ही आंदोलन शुरु हुआ। कई बातों को लेकर महिलाओं की पारंपरिक पोशाक की आलोचना होने लगी। एक दलीय यह थी कि लंबी स्कर्ट से जमीन पर झाड़ू चलती रहती है जिससे धूल और गंदली कपड़े में समा जाती है और उससे सेहत को खतरा होता है। स्कर्ट काफी बड़ी होती थी जिससे चलने फिरने में भी मुश्किल होती थी। वैसी स्कर्ट के कारण महिलाओं को काम करने में परेशानी होती थी। महिलाओं को लगता था कि आरामदेह कपड़ों में वे काम कर पाएंगी और कमा भी पाएंगी।
शुरु शुरु में सुधारकों को काफी आलोचना झेलनी पड़ी। लोग कहते थे कि पारंपरिक पोशाक छोड़ देने से महिलाओं की सुंदरता और शालीनता समाप्त हो जाएगी। जब पुरातनपंथियों का आक्रमण अधिक हो गया तो कई महिलाओं हार स्वीकारते हुए पारंपरिक परिधान पहनने शुरु कर दिए।
लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत तक बदलाव दिखने लगे थे। प्रथम विश्व युद्ध के शुरु होते ही कई औरतों को कारखानों में काम करने जाना पड़ा। कारखाने में काम करने के लिए ऐसे कपड़े की जरूरत थी जिससे काम करने में परेशानी न हो। इसलिए कपड़े बनाने के लिए नई सामग्रियों का इस्तेमाल होने लगा और ड्रेस की स्टाइल भी बदलने लगी।
नई सामग्रियाँ
फ्लेक्स, लिनेन और ऊन के कपड़ों की साज संभाल मुश्किल काम था इसलिए सत्रहवीं सदी से पहले आम महिलाओ के पास वैसे कपड़े नहीं थे। 1600 के बाद भारत का छींट यूरोप में बिकने लगा। भारत का छींट सस्ता और सुंदर था और रखरखाव में आसान था।
उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के दौरान इंग्लैंड में सूती कपड़े का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। इससे सूती कपड़े अब यूरोप के अधिकतर लोगों की पहुँच में आ चुका था।
बीसवीं सदी की शुरुआत में कृत्रिम रेशे का इस्तेमाल होने लगा। इनसे बने कपड़े सस्ते और रखरखाव में आसान होते थे।
विश्व युद्ध
महिलाओं की पोशाक पर दोनों विश्व युद्धों का गहरा असर पड़ा। यूरोप की अधिकतर महिलाओं ने महंगे कपड़े और जेवर पहनना बंद कर दिया। अब अधिकतर महिलाएँ एक जैसी पोशाक पहनने लगीं जिससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच का अंतर धुंधला हो गया।
पहले विश्व युद्ध के दौरान, व्यावहारिक जरूरतों के कारण महिलाओं की ड्रेस छोटी हो गई। 1917 में 700,000 से अधिक औरतें ब्रिटेन की हथियारों की फैक्ट्री में काम कर रही थीं। शुरु में उनका उनका यूनिफॉर्म था ब्लाउज और ट्राउजर के साथ स्कार्फ। बाद में खाकी ओवरऑल और टोपी उनकी ड्रेस बन गई। जब युद्ध खिंचने लगा तो चटख रंगों की जगह हल्के और डल रंग आ गए।
सहूलियत के कारण स्कर्ट की लंबाई कम हो गई। पश्चिम की औरतों के लिए पतलून जरूरी पोशाक हो गई क्योंकि पतलून से घूमने फिरने में बहुत सहूलियत होती है। अब औरतों के बाल भी छोटे हो गए क्योंकि छोटे बालों का रखरखाव अधिक आसान होता है।
बीसवीं सदी में सादी पोशाक को गंभीरता और व्यावसायिकता की निशानी माना जाने लगा। स्कूलों में भी बच्चों की ड्रेस में सादगी पर जोर दिया जाने लगा। स्कूलों में महिलाओं के लिए जब जिमनास्टिक और अन्य खेलों की शुरुआत हुई तो ड्रेस की सहूलियत और आराम पर अधिक जोर होने लगा।