भारत में पोशाक
उपनिवेश काल में भारत मे लोगों पर, खासकर पुरुषों पर पश्चिम फैशन का प्रभाव आसानी से दिखता है। पश्चिमी शैली के परिधानों के प्रति भारत के लोग अलग अलग तरह से प्रतिक्रिया करते थे।
पश्चिमी पोशाक
कई लोगों ने, खासकर से पुरुषों ने पश्चिमी पोशाक की कुछ खासियतों को अपनाना शुरु किया। पश्चिमी परिधानों को अपनाने में सबसे आगे पारसी थे। उन्होंने बैगी ट्राउजर, फेंटा (हैट), बगैर कॉलर का कोट पहनना शुरु किया। पूरी तरह से जेंटलमैन लगने के लिए वे बूट और छड़ी का इस्तेमाल भी करते थे।
कुछ लोगों के लिए पश्चिमी पोशाक आधुनिकता और तरक्की की निशानी थी। जो दलित धर्म परिवर्तन करके इसाई बन गए थे उनके लिए पश्चिमी पोशाक का मतलब था पुरानी बेड़ियों से आजादी। लेकिन इन मामलों में भी पुरुषों ने ही पश्चिमी पोशाक को अपनाना शुरु किया।
पारंपरिक पोशाक
कुछ लोगों को लगता था कि पश्चिमी परिधान पहनने से पारंपरिक पहचान समाप्त हो जाएगी। ऐसे लोग पारंपरिक भारतीय परिधानों को तरजीह देते थे।
पश्चिमी और पारंपरिक परिधान का मेल
कुछ लोगों ने भारतीय परिधान और पश्चिमी परिधानों को मिलाजुलाकर पहनना शुरु किया। कुछ लोग धोती के ऊपर कोट और हैट पहनते थे। कई लोग सूट के ऊपर पगड़ी पहनते थे। कई लोग काम पर जाने के लिए पश्चिमी ड्रेस पहनते थे और घर पर भारतीय ड्रेस।
जाति विवाद और पोशाक
भारत में पोशाक और भोजन के मामलों में जाति व्यवस्था पर आधारित नियम बने हुए थे। नीची जाति के लोगों को कुछ खास पोशाक और भोजन के इस्तेमाल की सख्त मनाही थी। कई बार पोशाक की स्टाइल बदलने से हिंसक प्रतिक्रियाएँ भी हुईं, क्योंकि ऐसे बदलावों से कई लोगों को लगता था कि सामाजिक ढ़ाँचा चरमरा जाएगा।
इसे समझने के लिए त्रावणकोर के शनार जाति उदाहरण देखते हैं। निचली जाति का होने के कारण शनार जाति के पुरुषों और महिलाओं को अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढ़ककर रखने की अनुमति नहीं थी। 1820 के दशक में इसाई मिशनरियों से प्रभावित होकर शनार महिलाओं ने ब्लाउज पहनना शुरु किया। 1822 की मई में नायर लोगों ने शनार महिलाओं पर आक्रमण किया और उनके ब्लाउज फाड़ डाले। 1829 में वहाँ की सरकार ने घोषणा करवाई कि शनार महिलाएँ ब्लाउज पहनने से बचें। कई वर्षों के झगड़े के बाद सरकार ने आदेश जारी किया कि शनार महिलाएँ ब्लाउज पहन सकती हैं लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह ऊँची जाति की हिंदू महिलाएँ पहनती हैं।
अंग्रेजी राज और पोशाक
किसी भी पोशाक का अर्थ संस्कृति के हिसाब से बदल जाता है। कई बार इससे असमंजस और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसे समझने के लिए पगड़ी और हैट का उदाहरण लेते हैं। भारत के लोगों के लिए पगड़ी सम्मान की निशानी है जिसे हमेशा सिर के ऊपर रहना चाहिए। अंग्रेज जब किसी को सम्मान देना चाहते हैं तो उसके सामने अपनी हैट उतार देते हैं। जब किसी अंग्रेज अफसर के सामने कोई भारतीय अपनी पगड़ी नहीं उतारता था तो इसे अशिष्टता समझा जाता था।
अब जूते का उदाहरण लेते हैं। भारतीय जब कभी पूजा के स्थल पर जाते हैं तो अपने जूते उतार लेते हैं। कई लोग तो घरों में प्रवेश करने से पहले भी जूते उतार लेते हैं। इस परंपरा का पालन तब भी किया जाता है जब लोग अपने से श्रेष्ठ से मिलने जाते हैं। जब अंग्रेज किसी राजा से मिलने जाते थे तो इस परंपरा का पालन करते थे। लेकिन यही व्यवहार वे भारतीय लोगों से भी चाहते थे। कई अफसर के दफ्तरों में जूते उतारकर जाने का निर्देश था। लेकिन भारतीय लोगों को लगता था कि दफ्तर की तुलना घर या मंदिर से नहीं की जा सकती।
राष्ट्रीय पोशाक
आजादी की लड़ाई के दौरान कई बुद्धिजीवियों ने एक ऐसा राष्ट्रीय ड्रेस डिजाइन करना शुरु किया जिससे पूरे भारत की पहचान दिख सके। रबींद्रनाथ टैगोर ने वैसे डिजाइन में हिंदू और मुस्लिम तत्वों को शामिल करने की सलाह दी। जिस चपकन (बटन वाला लंबा कोट) को आज हम देखते हैं यह उसी सोच का नतीजा है।
सत्येंद्रनाथ टैगोर की पत्नी ज्ञानदानंदिनी देवी 1870 के दशक के आखिर में बम्बई से कलकत्ता लौटी थीं। उन्होंने पारसी स्टाइल में साड़ी पहनना शुरु किया। उनकी साड़ी का पल्लू बाएँ कंधे पर ब्रूच से लगा रहता था और साथ में वे ब्लाउज और जूते भी पहनती थीं। उस स्टाइल को जल्दी ही ब्रह्मो समाज की महिलाओं ने अपना लिया और फिर इसे ब्रह्मिका साड़ी के नाम से जाना जाने लगा।
स्वदेशी आंदोलन
1905 में बंगाल का विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन शुरु हुआ था। स्वदेशी आंदोलन के दौरान लोगों से ब्रिटेन के सामानों का बहिष्कार करने की अपील की गई। खादी के इस्तेमाल पर जोर दिया जाने लगा। औरतों से अपील की गई कि वे रेशम का त्याग करें और काँच की चूड़ियाँ फेंक दें। उच्च वर्ग की महिलाओं ने इन अपीलों पर अमल भी किया लेकिन निचले तबके की महिलाओं के लिए खादी पहनना महंगा पड़ता था। लगभग पाँचेक वर्षों के बाद उच्च वर्ग की महिलाओं ने भी फिर से पहले वाली पोशाकों को पहनना शुरु किया।
महात्मा गांधी की पोशाक
पोशाक का प्रतीक के तौर पर जितना अच्छा इस्तेमाल महात्मा गांधी ने किया शायद और किसी ने नहीं किया होगा। महात्मा गांधी का नाम सुनते ही जेहन में उनकी नंगे बदन और छोटी धोती वाली तसवीर उभर आती है। शुरु में महात्मा गांधी ने उस पोशाक को थोड़े समय ही पहनने के बारे में सोचा था। लेकिन बाद में उस शक्तिशाली प्रतीक के असर के बारे में वे पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे।
स्वदेशी अपनाने के विचार को लोगों तक पहुँचाने के उद्देश्य से गांधी जी ने हाथ से बुने हुए खादी के इस्तेमाल पर जोर दिया। इंग्लैंड में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए भी महात्मा गांधी अपनी चिरपरिचित पोशाक में ही गए।
खादी महंगी होती है और इसका रखरखाव भी मुश्किल होता है। इसलिए खादी कभी भी लोकप्रिय नहीं हो पाई। मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़े सस्ते और टिकाऊ होते थे। कई राष्ट्रवादी नेता भी भारत के पारंपरिक परिधान (धोती कुर्ता या पायजामा कुर्ता) पहनते थे। लेकिन उनके कपड़े खादी के न होकर महीन सूत के होते थे। जिन्ना और अंबेदकर जैसे नेता तो पश्चिमी सूट ही पहनते थे। अंबेदकर के लिए सूट पहनने का मतलब था दलितों पर हजारों वर्षों से चले आ रहे उत्पीड़न से आजादी। महिला नेताएँ साड़ी पहनती थीं।