आधुनिक विश्व में चरवाहे
उपनिवेशी शासन और चरवाहों का जीवन
अब देखते हैं कि भारत में उपनिवेशी शासकों द्वारा कौन से नये नियम बनाये गये और उन नियमों का इन चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा। उपनिवेशी शासन का चरवाहों की जिंदगी पर गहरा असर पड़ा।
उपनिवेशी शासक चरागाहों को भी खेतों में बदलना चाहते थे। जमीन से मिलने वाला टैक्स उनकी आय का मुख्य स्रोत था और इसलिए वे मालगुजारी बढ़ाने के लिए हर दिशा में काम करते थे। इसके अलावा, जूट, कपास और गेहूँ का उत्पादन बढ़ाने के लिए खेती की जमीन बढ़ाने की जरूरत थी। इन चीजों की माँग इंगलैंड में बढ़ती जा रही थी।
बेकार जमीन: देश के विभिन्न हिस्सों में परती जमीन के विकास के लिए कानून लागू किये गये। अब परती जमीन का अघिग्रहण किया गया और उसे कुछ चुने हुए लोगों को दे दिया गया। इन लोगों को कई छूट दी गई ताकि वे उन जमीनों पर बस सकें और खेती कर सकें। खेती की भूमि बढ़ने से चरागाह छोटे होते चले गये। इससे चरवाहों की समस्या बढ़ने लगी।
वन अधिनियम
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में वन अधिनियम लागू किये गये। इस अधिनियम के तहत कई वनों को आरक्षित वन की श्रेणी में रखा गया। आरक्षित वन में चरवाहों को जाने की मनाही थी। कुछ अन्य वनों को सुरक्षित वन की श्रेणी में रखा गया। सुरक्षित वन में चरवाहों को जाने के लिए परमिट लेना होता था लेकिन उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती थी।
नये वन कानून से चरवाहों का जीवन हमेशा के लिए बदल गया। अब अधिकतर जगहों पर वे नहीं जा सकते थे और कुछ जगहों पर बहुत मुश्किल से जा पाते थे। अब मौसम के चक्र की बजाय उन्हें नये कानूनों के हिसाब से चलना पड़ता था। इससे उनकी परंपागत जिंदगी में बड़े बदलाव आ गये।
अपराधी जनजाति अधिनियम
उपनिवेशी शासक घुमंतू लोगों को शक की निगाह से देखते थे और उन्हें अपराधी प्रवृत्ति का मानते थे। 1871 में अपराधी जनजाति अधिनियम लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के कई समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया गया। इन लोगों को कुछ चुने हुए गाँवों में ही रहने का आदेश दिया गया और उनपर कड़ी नजर रखी जाने लगी।
उपनिवेशी सरकार टैक्स के हर संभव स्रोत की तलाश में रहती थी। अब जमीन पर, नहर के पानी पर बिकने वाली चीजों पर और यहाँ तक कि मवेशियों पर भी टैक्स लगने लगे।
चरवाहा टैक्स
उन्नीसवीं सदी के मध्य में चरवाही पर भी टैक्स लगने लगा। टैक्स की राशि प्रति मवेशी के हिसाब से तय होती थी। टैक्स की दर तेजी से बढ़ने लगी और टैक्स वसूलने का सिस्टम पहले से अधिक कुशल हो गया।
1850 से 1880 के दशकों के दौरान टैक्स वसूलने के लिए ठेके दिये गये। जिनको टैक्स वसूलने का ठेका मिलता था वे अपनी पूँजी वसूल करने के लिए अधिक से अधिक टैक्स लगाते थे। 1880 के दशक से सरकार ने चरवाहों से खुद टैक्स वसूलना शुरु कर दिया।
चरवाहों के जीवन में बदलाव
चरागाह तेजी से कम हो रहे थे। इसलिए बचे हुए चरागाहों में पशुओं की संख्या बढ़ने लगी। पहले जब चरवाहे मौसम के हिसाब से एक चरागाह को छोड़कर दूसरी जगह चले जाते थे तो उस बीच चारे को दोबारा पनपने का मौका मिल जाता था। लेकिन अब जानवरों के लिए चारे की किल्लत की समस्या खड़ी होने लगी और जानवरों की संख्या कम होने लगी। अधिकतर जानवर भुखमरी के शिकार हो गये।
स्थिति से निबटने के लिए कुछ चरवाहों ने अपने जानवरों की संख्या कम कर दी। कुछ चरवाहों ने नये चरागाह खोज लिये। इसके लिए राइका का उदाहरण लेते हैं। 1947 में भारत के विभाजन के बाद वे अपने पशुओं को लेकर सिंध नहीं जा सकते थे। इसलिए नये चरागाह की तलाश में ये लोग हरियाणा पहुँच गये। कुछ धनी चरवाहों ने जमीनें खरीद ली और खेती बारी करने लगे। कुछ लोग व्यापार करने लगे। लेकिन गरीब चरवाहे सूदखोरों के चंगुल में फँस गये। इनमें से अधिकतर को अपने मवेशियों से हाथ धोना पड़ा और फिर ये लोग मजदूरी करने लगे।