राजा, राज्य और गणराज्य
आप क्या सीखेंगे:
- राजा और राज्य
- वर्ण व्यवस्था
- जनपद और महाजनपद
- मगध
आज से लगभग 3000 वर्ष पहले यानि 600 ई पू राजाओं की स्थिति में बड़े बदलाव हुए। वैदिक युग के राजाओं की तुलना में इस युग के राजा अधिक शक्तिशाली हो गये।
अश्वमेध यज्ञ
अब राजा चुनने की विधि भी बदल गई थी। जो व्यक्ति राजा बनना चाहता था उसे अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बड़े अनुष्ठान करने पड़ते थे। ऐसा राजा अक्सर दूसरे राजाओं पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करता था।
अश्वमेध यज्ञ की कुछ रोचक बातें नीचे दी गई हैं:
- इस यज्ञ के दौरान एक घोड़े को आस पास के इलाके में घूमने के लिए छोड़ दिया जाता था। यदि किसी दूसरे राजा के इलाके से घोड़ा बेरोक टोक निकल जाता था तो इससे यह समझा जाता था कि दूसरे राजा को यज्ञ करवाने वाले राजा का आधिपत्य स्वीकार है। यदि कोई उस घोड़े का रास्ता रोकता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था। युद्ध में जो जीतता था उसे ही सबसे शक्तिशाली राजा मान लिया जाता था।
- जब घोड़ा सभी इलाकों से घूमकर वापस आ जाता था तो अन्य राजाओं को यज्ञ में आने का निमंत्रण भेजा जाता था। इससे अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा की ताकत को सबकी सहमति मिल जाती थी।
- विशेष रूप से प्रशिक्षित पुरोहित यज्ञ के अनुष्ठान संपन्न करवाते थे। पुरोहितों को महंगे उपहार दिये जाते थे। इन उपहारों में गाय एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती थी।
- यज्ञ में राजा ही सबके आकर्षण का केंद्र होता था। उसे सबसे ऊँचे आसन पर बैठने का अधिकार मिलता था। अन्य राजाओं को उनकी हैसियत के हिसाब से आसन मिलते थे। चूँकि राजा का सारथी हर युद्ध में उसके साथ होता था, इसलिए वह यज्ञ के दौरान राजा की बहादुरी के किस्से सुनाता था। अन्य राजाओं से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मूक दर्शक बने रहें।
- मुख्य राजा के रिश्तेदारों को भी यज्ञ में कुछ छोटे मोटे अनुष्ठान करने का मौका मिल जाता था। आम नागरिकों (विश या वैश्य) से अपेक्षा की जाती थी कि वे राजा के लिए उपहार लेकर आयें। शूद्रों को यज्ञ में शामिल नहीं होने दिया जाता था।
वर्ण व्यवस्था
समाज को चार वर्णों में बाँटा गया था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
- ब्राह्मण: ब्राह्मण को वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊँचा स्थान दिया गया था। ब्राह्मणों का काम था वेदों को पढ़ना और पढ़ाना। उन्हें तरह तरह के अनुष्ठान संपन्न कराने होते थे। इन अनुष्ठानों को करवाने के बदले में उन्हें उपहार दिये जाते थे।
- क्षत्रिय: इस वर्ण का स्थान दूसरे नंबर पर आता था। इस वर्ण में शासक वर्ग के लोग आते थे। क्षत्रिय का काम था युद्ध लड़ना और लोगों की सुरक्षा करना। क्षत्रिय भी अनुष्ठान कर सकते थे।
- वैश्य: इस वर्ण का स्थान तीसरे नंबर पर आता था। किसान, चरवाहे और व्यापारी इस वर्ण के सदस्य होते थे। वैश्यों को भी अनुष्ठान करने का अधिकार था।
- शूद्र: यह वर्ण सबसे निचले पायदान पर रखा गया था। शूद्रों का काम था अन्य तीन वर्णों की सेवा करना। महिलाओं को भी शूद्र माना जाता था। शूद्रों को यज्ञ करने की अनुमति नहीं थी। वे ऐसे अनुष्ठानों में शामिल भी नहीं हो सकते थे।
किसी भी व्यक्ति का वर्ण उसके जन्म से तय होता था। यानि, एक ब्राह्मण का बेटा हमेशा एक ब्राह्मण ही रहता था। इसी तरह किसी शूद्र का बेटा हमेशा शूद्र ही रहता था। लेकिन कुछ लोग इस व्यवस्था से सहमत नहीं थे, यहाँ तक कि कुछ राजा भी इसके विरोध में थे। उदाहरण के लिए पूर्वोत्तर भारत में समाज में इतना अधिक भेदभाव नहीं था और पुजारियों को उतना महत्व प्राप्त नहीं था।