इमारतें, चित्र तथा किताबें
आप क्या सीखेंगे:
- इमारतों का निर्माण
- चित्र और कलाकार
- किताबें और वैज्ञानिक खोज
दिल्ली का लौह स्तंभ
जब आप कुतुब मीनार घूमने जायेंगे तो आपको इसके नजदीक एक लौह स्तंभ दिखेगा। यह कोई साधारण स्तंभ नहीं है। यह स्तंभ पिछले 1500 वर्षों से यहाँ खड़ा है और इसमें आज तक जंग नहीं लगा है। इससे पता चलता है कि उस जमाने में धातुशोधन की तकनीक कितनी विकसित थी। इस स्तंभ पर एक अभिलेख है जिससे पता चलता है कि इसे गुप्त साम्राज्य के चंद्रगुप्त के काल में बनवाया गया था।
स्तूप
- ‘स्तूप’ शब्द का मतलब होता है टीला। स्तूपों का निर्माण अक्सर बुद्ध के अनुयायियों द्वारा करवाया गया था। स्तूप की संरचना में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं।
- स्तूप के बीच में अक्सर एक बक्सा रखा जाता है। इस बक्से में बुद्ध या उनके शिष्यों के के शरीर के अवशेष रखे जाते थे।
- उस बक्से को मिट्टी से ढ़क दिया जाता था। उसके बाद इसे कच्ची ईंटों से और फिर पकी ईंटों से ढ़का जाता था। आखिर में कभी कभी इसे पत्थर की सिल्लियों से ढ़का जाता था जिसपर नक्काशी की जाती थी।
- स्तूप के चारों ओर एक प्रदक्षिणा मार्ग बनाया जाता था। बुद्ध के भक्त इस मार्ग पर घड़ी की सुई की दिशा में प्रदक्षिणा करते हैं।
- प्रदक्षिणा मार्ग के चारों ओर रेलिंग से घेर दिया जाता था, जिसे वेदिका कहते हैं। वेदिका में एक प्रवेशद्वार भी बना दिया जाता था। रेलिंग और प्रवेश द्वार पर सुंदर नक्काशी की जाती है।
- स्तूप के बेहतरीन संरचना और उसपर की गई सुंदर नक्काशी से उस जमाने के वास्तुशिल्प का अंदाजा मिलता है।
हिंदू मंदिर की संरचना
- हिंदू मंदिर के सबसे महत्वपूर्ण भाग को गर्भ गृह कहते हैं। यहीं पर मुख्य देवी या देवता की मूर्ति रखी जाती है। इसी स्थान पर पुरोहित अनुष्ठान करते हैं और लोग पूजा करते हैं।
- गर्भ गृह के ऊपर अक्सर एक ऊँचा स्तंभ (टावर) बना दिया जाता था। इस टावर को शिखर कहते हैं। शिखर से गर्भ गृह के महत्व का पता चलता है।
- अधिकतर मंदिरों में एक बड़ा सा हॉल होता था जिसे मंडपम कहते हैं। मंडपम में ढ़ेर सारे लोग इकट्ठा हो सकते हैं।
शुरु शुरु में मंदिरों को पत्थर और ईंटों से बनाया जाता था। लेकिन बाद में कई ऐसे मंदिर बने जिन्हें केवल पत्थरों से बनाया गया। कुछ मंदिरों को तो केवल एक ही विशाल पत्थर को तराशकर बनाया गया, जैसे कि महाबलिपुरम का मंदिर।
स्तूप या मंदिर बनाने का काम
किसी मंदिर या स्तूप को बनाना बहुत महंगा पड़ता था। इसके लिए धन जुटाने का काम बहुत ही महत्वपूर्ण होता होगा। यह धन अक्सर राजा या रानी द्वारा दिया जाता था।
धन की व्यवस्था हो जाने के बाद अच्छी किस्म के पत्थरों को खोजा जाता था। फिर उन पत्थरों को खोदने के बाद निर्माण स्थल पर पहुँचाया जाता था। निर्माण स्थल पर पत्थरों को तराशकर खंभे, वाल पैनल, छत के पैनल और फर्श की टाइलें बनाई जाती थीं।
पत्थर के बड़े टुकड़े बहुत भारी होते थे। इसलिए उन्हें किसी जगह पर पहुँचाने के लिए खास व्यवस्था करनी पड़ती थी।
कई बार मंदिर निर्माण के लिए अन्य लोग भी दान करते थे। उदाहरण: व्यापारी, किसान, फूल विक्रेता, आदि।
चित्रकला
महाराष्ट्र में स्थित अजंता की गुफाओं की चित्रकला बहुत मशहूर हैं। आज भी इन चित्रों के रंग चमकदार और चटख लगते हैं। किसी को भी देखकर आश्चर्य होता है कि इन अंधेरी गुफाओं में चित्रकारों ने अपना काम कैसे किया होगा। दूसरी बड़ी बात ये है कि उन कलाकारों का नाम कोई भी नहीं जानता है।
किताबें
- यह वह समय था जब भारत के कुछ बेहतरीन महाकाव्यों की रचना हुई थी। जो साहित्यिक किताब हजारों पन्नों में रहती है उसे महाकाव्य कहते हैं।
- लगभग 1800 वर्ष पहले इलांगो नामक कवि ने मशहूर तमिल महाकाव्य सिलप्पदिकारम की रचना की थी।
- सत्तनार ने तमिल महाकाव्य मणिमेखलई की रचना लगभग 1400 वर्ष पहले की थी।
- कालिदास ने कई महाकाव्यों और नाटकों की रचना की।
- इसी काल में पुराणों की रचना हुई थी। महिलाओं और शूद्रों को भी पुराण पढ़ने की अनुमति थी। पुराणों को सरल संस्कृत में लिखा गया था।
- इसी समय में महाभारत और रामायण की रचना हुई थी। महाभारत को वेदव्यास ने और रामायण को वाल्मीकि ने लिखा था। आम लोगों की कई कहानियों को संकलित करके पुस्तक का रूप दिया गया। जातक कथाएँ और पंचतंत्र ऐसी ही किताबें हैं।
विज्ञान
आर्यभट एक गणितज्ञ और ज्योतिषशास्त्री थे। उनकी पुस्तक आर्यभटियम में गणित और ज्योतिष के कई सिद्धांत हैं। उन्होंने गणित और विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह उन अग्रणी वैज्ञानिकों में से थे जिन्होंने बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते है जिसके कारण दिन और रात होते हैं। उन्होंने ग्रहणों का सही सही वैज्ञानिक कारण बताया। आर्यभट ने वृत्त की परिधि ज्ञात करने का सही तरीका भी निकाला। यह विधि आज भी इस्तेमाल होती है।
इस समय की एक और महत्वपूर्ण खोज है शून्य की खोज। शून्य की खोज के बाद ही दशमलव प्रणाली का विकास संभव हो पाया। दशमल प्रणाली अरबी देशों से होते हुए यूरोप तक पहुँचा। इसलिए इसे अरबी संख्या या हिंदू-अरबी संख्या कहते हैं।