राजा, राज्य और गणराज्य
आप क्या सीखेंगे:
- जनपद
- महाजनपद
- टैक्स
जनपद
`जनपद’ शब्द दो शब्दों ‘जन’ और ‘पद’ से मिलकर बना है। इसका मतलब वह स्थान जहाँ लोगों ने अपने पैर रखे और बस गये। अश्वमेध यज्ञ सफलतापूर्वक करने के बाद एक राजा किसी जनपद का राजा बन जाता था। आपको शायद यह पता हो कि आज भी उत्तर प्रदेश में जिले को जनपद कहा जाता है।
जनपद का आकार बड़ा होता था, लेकिन यहाँ भी लोग झोपड़ियों में रहते थे और मवेशी पालते थे। जनपद के लोग कई फसल भी उगाते थे, जैसे कि चावल, दलहन, जौ, गन्ना, तिल और सरसों। पुरातत्वविदों ने जनपद वाले कई पुरास्थलों को खोज निकाला है, जैसे कि दिल्ली का पुराना किला, मेरठ के पास हस्तिनापुर और एटा के पास अतरंजीखेड़ा।
चित्रित धूसर पात्र: लोग अक्सर मिट्टी के बरतन इस्तेमाल करते थे। कुछ बरतन लाल थे तो कुछ धूसर रंगे के थे। कुछ धूसर बरतनों पर सुंदर चित्रकारी भी होती थी। ऐसे बरतन शायद खास मौकों पर इस्तेमाल किये जाते थे।
महाजनपद
कुछ जनपद लगभग 2500 वर्ष पहले आकार में बड़े हो गये, और जनपदों से अधिक महत्वपूर्ण हो गये। इन्हें महाजनपद कहा जाने लगा। महाजनपद के कुछ उदाहरण हैं मगध, कोसल, अंग, पांचाल, आदि।
किला: महाजनपद किसी न किसी राजा की राजधानी हुआ करती थी। ऐसे नगर अक्सर किले से घिरे होते थे। किले बनाने में ईंट, पत्थर और लकड़ी का इस्तेमाल होता था। किले का निर्माण शहर को दुश्मन से बचाने के लिए किया जाता था। किले को महाजनपद की संपन्नता का प्रदर्शन करने के लिए भी बनाया जाता था। साथ में यह भी होता था कि किसी किलेबंद शहर पर नियंत्रण रखना अधिक आसान हो जाता था।
सेना: राजा एक नियमित सेना रखने लगे थे। सैनिकों को नियमित रूप से वेतन मिलने लगा था।
सिक्के: भुगतान के लिए सिक्कों का इस्तेमाल होने लगा था। सिक्कों पर पंच (आघात) करके डिजाइन बनाये जाते थे। इसलिए इन सिक्कों को आहत सिक्का या पंच क्वायन कहा जाता है। इस तरह से इस काल में वस्तु विनिमय प्रणाली से मुद्रा विनिमय प्रणाली की शुरुआत हुई।
टैक्स:
महाजनपद के राजा को किला बनवाने और सेना रखने के लिए बहुत अधिक धन की जरूरत पड़ती थी। पहले के राजा अन्य राजाओं से मिले उपहारों से अपना काम चला लेते थे। लेकिन अब केवल उपहारों से काम चलाना संभव नहीं था। इसलिए राजाओं ने कर वसूलना शुरु कर दिया। टैक्स वसूलने के लिए कुछ लोगों को काम पर भी रखा जाने लगा। टैक्स वसूलने के तरीके नीचे दिये गये हैं:
- टैक्स के सबसे बड़े स्रोत किसान थे। उपज का छठा भाग टैक्स के रूप में लिया जाता था। इसे ‘भाग’ कहते थे।
- शिल्पकार को मुफ्त मजदूरी के रूप में कर देना होता था। उसे महीने में एक दिन बिना मेहनताना लिए राजा के लिए काम करना होता था।
- गड़ेरिये को टैक्स के रूप में पशु या फिर उससे जुड़ा उत्पाद देना होता था। (दूध, दही, ऊन, आदि)
- व्यापार में बेचे और खरीदे जाने वाली वस्तुओं पर भी टैक्स लगाया जाता था।
- आखेटक और भोजन-संग्राहक को जंगल के उत्पादों के रूप में टैक्स देना होता था।
कृषि में बदलाव
कृषि में दो बड़े बदलाव हुए:
- हल में लोहे के फाल का चलन: अब हल में लकड़ी के फाल की जगह लोहे के फाल का इस्तेमाल होने लगा। इससे खेती लायक जमीन का आकार बढ़ाने में काफी मदद मिली। इससे पैदावर बढ़ने लगी।
- धान की रोपनी: आपने खेतों में या टेलिविजन पर धान की रोपनी होते हुए देखा होगा। पहले धान के बीजों को जमीन के छोटे टुकड़े पर बोया जाता है। जब छोटे-छोटे पौधे निकल आते हैं तो उन्हें उखाड़ कर बड़ी जमीन पर फिर से रोपा जाता है। ऐसा करने से दो पौधों के बीच समुचित जगह छोड़ने में आसानी होती है। इसे धान की रोपनी या रोपण कहते हैं। इससे चावल की पैदावार बढ़ाने में मदद मिलती है। लेकिन धान की रोपनी बड़ा ही मेहनत वाला काम है। इसके लिए दास, दासी और भूमिहीन मजदूरों को काम पर लगाया जाता था। भूमिहीन मजदूरों को कम्मकार कहते थे।