इंडो चीन का राष्ट्रवाद
धर्म और उपनिवेश
वियतनाम की धार्मिक मान्यताओं में बुद्ध, कंफ्यूसियस और कई स्थानीय रीतियों का मिश्रण था। फ्रेंच मिशनरियों ने वहाँ इसाई धर्म को लाया था। स्थानीय लोगों को धर्म परिवर्तन का यह प्रयास पसंद नहीं आया। अठारहवीं सदी से ही पश्चिमी मान्यताओं के खिलाफ कई धार्मिक आंदोलन शुरु हो गए। 1969 का स्कॉलर रिवोल्ट ऐसा ही एक आंदोलन था जो इसाई धर्म के खिलाफ था।
हुइन फू सो: इसी तरह के आंदोलनों में से एक था होआ हाओ। इसकी शुरुआत 1939 में हुई थी और यह मेकॉंग डेल्टा के क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हुआ था। यह आंदोलन उन्नीसवीं सदी के फ्रेंच विरोधी और लोकप्रिय धार्मिक भावनाओं से काफी प्रेरित था। होआ हाओ आंदोलन के जनक का नाम था हुइन फू सो। वे कई तरह के चमत्कार किया करते थे और गरीबों की मदद करते थे। वे अनाप शनाप खर्चे की आलोचना करते थे और काफी लोकप्रिय थे। उन्होंने कई सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया; जैसे बाल विवाह, जुआ, शराब और अफीम।
फ्रेच शासकों ने हुइन फू सो के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। उन्होंने उसे पागल करार कर दिया और उसे पागल बोन्ये का नाम दिया। उसे एक पागलखाने में डाल दिया गया। लेकिन जिस डॉक्टर को उसे पागल होने का सर्टिफिकेट देना था वही उसका फैन बन गया। आखिर में उसे देशनिकाला देकर लाओस भेज दिया गया। उसके कई अनुयायियों को कॉन्संट्रेशन कैंपों में डाल दिया गया।
फान बोई चाऊ (1867 – 1940): वे एक राष्ट्रवादी थे जिनकी शिक्षा कन्फ्यूशियन पद्धति से हुई थी। उसने 1903 में रिवोल्यूशनरी सोसाइटी (डुई तान होई) का गठन किया जिसका नेतृत्व प्रिंस कुओंग डे करते थे। फान बोई चाऊ 1905 में योकोहामा में चीनी सुधारक लिआंग क्वीचाओ (1873 – 1929) से मिले। फान द्वारा लिखित सबसे प्रभावशाली किताब थी ‘द हिस्टरी ऑफ लॉस ऑफ वियतनाम’। इस किताब में क्वीचाओ का गहरा प्रभाव दिखता है। इस किताब में मुख्य रूप से दो मुद्दों पर बात की गई थी, स्वायत्तता का नाश और चीन के साथ टूटे हुए संबंध। वियतनाम की आजादी की लड़ाई में फान एक अग्रणी व्यक्ति के रुप में गिने जाते हैं।
फान शु ट्रिन (1871 – 1926): ये फान बोई चाऊ के विचारों के सख्त खिलाफ थे। ये राजतंत्र के खिलाफ थे और इस बात के विरोधी थे कि फ्रेंच का विरोध करने के लिए कोर्ट की मदद ली जाए। वे पश्चिम के प्रजातांत्रिक भावनाओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें फ्रांस के लोगों की स्वच्छंदता की भावना भी पसंद थी। वे चाहते थे कि फ्रेंच शासक कानूनी और शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण करें और कृषि और उद्योग को बढ़ावा दें।
चीन और जापान का प्रभाव
बीसवीं सदी के पहले दशक में आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वियतनाम से कई छात्र जापान गये। जापान जाने का मुख्य उद्देश्य था वियतनाम से फ्रेंच लोगों को भगाना, कठपुतली राजा को हटाना और फिर से एंगुएन वंश के शासन को बहाल करना। वे जापानियों से एशियाई होने के नाते मदद की गुहार करते थे।
जापान एक आधुनिक देश बन चुका था। जापान ने पश्चिमी ताकतों द्वारा उपनिवेश बनाने की कोशिशों को नाकाम कर दिया था। 1907 में जापान की रूस पर विजय से जापान की सैन्य शक्ति साबित हो चुकी थी। 1908 के बाद जापान की मिनिस्ट्री ऑफ इंटीरियर ने वियतनामी छात्रों की क्रांतिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगा दिया। कई क्रांतिकारियों को जापान से निकाल दिया गया। इन क्रांतिकारियों को चीन और थाइलैंड में पनाह लेने पर विवश होना पड़ा। फान बोई चाऊ भी उनमें से एक थे।
चीन में आने वाले बदलाव भी वियतनाम के राष्ट्रवादियों पर अपना प्रभाव डाल रहे थे। 1911 में सन यात सेन के नेतृत्व में एक लोकप्रिय आंदोलन हुआ था। उस आंदोलन ने लंबे समय से चले आ रहे राजतंत्र को समाप्त किया और लोकतंत्र को बहाल किया था। वियतनाम के छात्र उस घटना से काफी प्रभावित थे। उन्होंने एसोसियेशन फॉर द रिस्टोरेशन ऑफ वियतनाम (वियत कुआन फुक होई) बनाया। अब आजादी की लड़ाई का मतलब था एक लोकतंत्र की स्थापना।