10 इतिहास

समकालीन शहरी जीवन

शहर की विशेषताएँ

जिस जगह पर प्रमुख आर्थिक क्रिया कृषि हो और जहाँ अधिकतर लोग कृषि या उससे संबंधित पेशे से अपनी रोजी रोटी चलाते हों उस जगह को गाँव कहते हैं। लेकिन जिस जगह पर प्रमुख आर्थिक क्रिया कृषि न होकर कुछ और हो उस जगह को शहर कहते हैं।

जब आप महान नदी घाटी सभ्यताओं के बारे में पढ़ते हैं तो आप मोहन-जो-दाड़ो और हड़प्पा जैसे शहरों के बारे में पढ़ते हैं। जब खेती से इतनी पैदावार होने लगी कि अन्य पेशे वाले लोगों को भी आराम से भोजन मिल सके तो शहरों का विकास हुआ। समय बीतने के साथ साथ शहर के आकार और जटिलता में बदलाव आते गये। हड़प्पा काल के शहरों और मुगलकालीन शहरों में बड़ा भारी अंतर रहा होगा। उसी तरह आधुनिक शहर, खासकर से महानगर आकार और जटिलता के मामले में प्राचीन शहरों से बहुत अलग हैं।

शहर हमेशा से कई गतिविधियों का केंद्र हुआ करते हैं, जैसे राजनैतिक सत्ता, प्रशासनिक तंत्र, उद्योग धंधे, धार्मिक संस्थाएँ, बौद्धिक गतिविधियाँ, बाजार, आदि। भारत की राजधानी दिल्ली एक ऐसे शहर का उदाहरण है जहाँ राजनैतिक सत्ता, प्रशासनिक तंत्र, उद्योग धंधे, धार्मिक संस्थाएँ, बौद्धिक गतिविधियाँ, बाजार, आदि सारी गतिविधियाँ होती हैं। लेकिन यदि हम भिलाई या बोकारो को देखें तो वहाँ मुख्य रूप से उद्योग धंधे से संबंधित गतिविधियाँ होती हैं। वहीं दूसरी तरफ देवघर, तिरुपति, आदि में मुख्य रूप से धार्मिक संस्थाओं की गतिविधियाँ देखने को मिलती हैं। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि हर शहर की अपनी विशेषता होती है।

आज हम शहरों के जिस रूप को देखते हैं उसका विकास कोई दो सौ वर्षों पहले हुआ था। औद्योगीकरण की शुरुआत से आधुनिक शहरों के विकास की शुरुआत हुई और फिर इस प्रक्रिया पर लोकतंत्र के प्रसार और उपनिवेश के प्रसार का भी असर पड़ा।

इंग्लैंड के आधुनिक शहरों का उदय

औद्योगिक क्रांति के कई दशक बाद भी अधिकांश पश्चिमी देश ग्रामीण परिवेश वाले ही थे। जैसे लीड्स और मैनचेस्टर में 18 वीं सदी के अंत में कपड़ा मिलों के खुलने से गाँवों से लोग पलायन करके आने लगे, जिससे धीरे धीरे ये शहर बसते गये। 1851 में मैनचेस्टर की आबादी का तीन चौथाई से अधिक हिस्सा गाँव से आने वाला मजदूर था।

लंदन पहले से ही एक बड़ा शहर था। 18 वीं सदी के मध्य होते होते इंग्लैंड और वेल्स के हर नौ में से एक व्यक्ति लंदन में रहता था और लंदन की जनसंख्या 675,000 थी। 1810 से 1880 के बीच यानि 70 वर्षों में लंदन की जनसंख्या 10 लाख से चार गुनी यानि 40 लाख हो चुकी थी।

लंदन में कोई बड़ी फैक्ट्री नहीं थी लेकिन फिर भी यह शहर पलायन करने वालों की मुख्य मंजिल हुआ करता था। लंदन के डॉकयार्ड में रोजगार के काफी अवसर थे। इसके अलावा लोगों को कपड़ा, जूते, लकड़ी, फर्नीचर, मेटल, इंजीनियरिंग, प्रिंटिंग और प्रेसिजन इंस्ट्रूमेंट में भी काम मिलता था।

प्रथम विश्व युद्ध (1914–1919) के दौरान लंदन में कार और इलेक्ट्रिकल उत्पादों का निर्माण शुरु होने के साथ लंदन में बड़े कारखानों की शुरुआत हुई। कुछ समय बीतने के बाद, लंदन में रोजगार के कुल अवसरों का एक तिहाई इन बड़े कारखानों में मौजूद था।

हाशिये पर के लोग

लंदन शहर के आकार में बढ़ोतरी के साथ यहाँ अपराध में भी बढ़ोतरी हुई। अपराध को लेकर अलग अलग लोगों में अलग अलग तरह की चिंताएँ थीं। पुलिस अधिकारी शहर में शांति चाहते थे, समाजसेवी समाज में नैतिकता के लिए चिंतित थे तो उद्योगपति अपने कारखानों में कुशलता और अनुशासन को लेकर चिंतित थे। इसलिए उस दौर में शहर में होने वाले अपराध पर कई अध्ययन हुए और आँकड़े इकट्ठे किये गये।

एक अनुमान के अनुसार 1870 के दशक में इस शहर में लगभग 20,000 अपराधी रहते थे। अधिकतर अपराधी छोटी मोटी चोरियाँ किया करते थे ताकि किसी तरह उनका गुजारा चल जाये। कुछ अपराधी जटिल और पेशेवर काम को भी अंजाम देते थे जैसे जेब काटना और जालसाजी। यह देखा गया कि जब रोजगार नहीं मिल पाता था तो कई लोगों के पास छोटे मोटे अपराध करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता था। ऐसा भी देखा गया कि कारखाने में काम करके जितना कमाने में महीनों लग जाते थे अपराध करके उतनी कमाई शायद हफ्तों में आ जाये।

युद्ध के दौरान कई महिलाओं की नौकरी चली गई। ऐसी महिलाओं को अपना गुजर बसर करने के लिये दूसरों के घरों में चौका बरतन करने को मजबूर होना पड़ा। कई महिलाओं ने दूसरे कामों के लिये अपना घर किराये पर देना शुरु किया।

अठारहवीं सदी के आखिर और उन्नीसवीं सदी के शुरु में बहुत सी औरतें फैक्ट्रियों में काम करती थीं। लेकिन टेक्नॉलोजी में सुधार होने के साथ साथ महिलाओं की नौकरियाँ छिनने लगीं और उन्हें घरों में सिमटने को मजबूर होना पड़ा। कई औरतों को परिवार चलाने के लिए घरेलू नौकर की तरह काम करना पड़ा। कई औरतों ने अपने कमरे किराये पर उठाना शुरु कर दिया तो कुछ सिलाई बुनाई जैसे छोटे मोटे काम करने लगीं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान औरतों को फिर से फैक्ट्रियों में काम पर बुलाया गया।

बाल मजदूरी भी एक बड़ी समस्या थी। गरीब घर के बच्चों को कम पगार वाले कामों पर लगा दिया जाता था ताकि परिवार चलाया जा सके। बाल मजदूरी को रोकने के उद्देश्य से दो कानून बने, 1870 का कम्पल्सरी एजुकेशन एक्ट और फिर 1902 का फैक्ट्री ऐक्ट।

आवास की समस्या

गाँव से पलायन करके आनेवाले मजदूरों को फैक्ट्री की तरफ से रहने की व्यवस्था न होने के कारण शहर आवास की विकट समस्या थी। कुछ निजी लोग इन आप्रवासियों के लिए सस्ते टेनेमेंट्स बनाते थे ताकि कुछ कमाई हो जाए। ये मकान कामचलाऊ और तंगहाल होते थे जिसके कारण सघन बस्तियाँ बस जाती थीं। आवास की समस्या का आकलन करने के चार्ल्स बूथ (लिवरपूल का एक जहाज मालिक) ने 1887 में एक सर्वे किया और पाया कि लंदन में 10 लाख लोग गरीब थे। यह उस समय के लंदन की आबादी का बीस प्रतिशत था। खराब स्थिति में रहने के कारण इन लोगों की औसत जीवन प्रत्याशा 29 वर्ष थी जबकि अमीरों और मध्यम वर्ग के लोगों की जीवन प्रत्याशा 55 वर्ष थी। चार्ल्स बूथ ने बताया कि गरीबों के रहने के लिए लंदन में कम से कम चार लाख कमरों की जरूरत थी। जब लोग तंगहाल बस्तियों में रहते हैं तो समाज में लड़ाई-झगड़े और अपराध की संभावना अधिक होती है। इसलिए ऐसे मकानों की अधिक संख्या को आम जनता के स्वास्थ्य के लिए खतरा माना जाने लगा। इसलिए गरीबों की स्थिति सुधारने के लिए मजदूरों के लिए आवास योजना बनाई गई।

ऐसे मकानों की अधिक संख्या को जनता के स्वास्थ्य के लिये खतरा माना जाने लगा। ऐसे मकानों हवा आने जाने की समुचित व्यवस्था नहीं थी। ऐसे मकानों में सफाई का प्रावधान भी नहीं था। इन मकानों में हमेशा आग लगने का खतरा भी बना रहता था। कठिन परिस्थिति में रहने वाले लोग समाज में लड़ाई झगड़े के लिये अनुकूल परिस्थिति प्रदान करते थे। लंदन के गरीबों की स्थिति सुधारने के लिये मजदूरों के लिये आवास योजना बनाई गई।