10 इतिहास

समकालीन शहरी जीवन

आवास और पड़ोस

लंदन की तुलना में बम्बई में अधिक भीड़भाड़ थी। 1840 के दशक के आखिर में लंदन के प्रत्येक व्यक्ति के लिए 155 वर्ग गज जगह उपलब्ध थी। लेकिन बम्बई के प्रत्येक व्यक्ति के लिये केवल 9.5 वर्ग गज जगह उपलब्ध थी। लंदन में हर घर में औसतन 8 लोग रहते थे जबकि बम्बई में हर घर में औसतन 20 लोग रहते थे। इससे पता चलता है कि लंदन की तुलना में बंबई का जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक था।

1800 के दशक के शुरु में बॉम्बे फोर्ट को इस शहर का दिल माना जाता था। इस शहर के एक हिस्से में नेटिव लोग रहते थे और दूसरे हिस्से में गोरे लोग रहते थे। तीनों प्रेसिडेंसी शहरों में नस्ल के आधार पर इसी तरह का विभाजन देखने को मिलता था। गोरे लोगों के रिहायशी इलाके यहाँ के नेटिव लोगों के रिहायशी इलाकों से बिलकुल अलग होते थे।

शहर का विकास सुनियोजित ढ़ंग से नहीं हुआ था। इसलिए 1850 के मध्य तक यहाँ पानी और मकान की भारी किल्लत बन चुकी थी। अमीर लोग बड़े बड़े बंगलों में रहते थे। लेकिन मजदूरों का 70% से अधिक हिस्सा बम्बई की चालों में रहता था। इन चालों में सघन आबादी रहा करती थी। मिल में काम करने वाले मजदूरों का 90% हिस्सा गिरनगाँव में रहता था। गिरनगाँव इन मिलों से मुश्किल से 15 मिनट के फासले पर पड़ता था, यानि लोग आराम से पैदल चलकर अपने काम करने की जगह पर पहुँच सकते थे।

एक चाल एक बहुमंजिला इमारत होती थी और निजी मालिकों की संपत्ति हुआ करती थी। हर चाल में एक कमरे के कई मकान होते थे। इनमें कोई प्राइवेट टॉयलेट नहीं होता था और कई लोगों को एक ही टॉयलेट से काम चलाना पड़ता था। किराया इतना अधिक होता था कि लोगों को किसी रिश्तेदार या स्वजातीय लोगों के साथ एक कमरा शेअर करना पड़ता था।

छोटे कमरों में रहने के कारण लोग अपनी अधिकतर गतिविधियाँ गलियों और आस पास उपलब्ध खुले जगह में करते थे। चाल के बीच में अक्सर एक आंगन होता था जिसका इस्तेमाल कपड़े धोने, बरतन धोने, नहाने और गप्पें मारने के लिए किया जाता था। पुरुष अक्सर खुले में सो भी जाते थे। आस पास की खाली जमीन का इस्तेमाल शराब बेचने वाले, अखाड़े वाले, करतब दिखाने वाले और फेरीवाले भी किया करते थे।

किराये का मकान खोजने में भी जाति की समस्या आड़े आती थी। नीची जाति के लोगों को बड़ी मुश्किल से मकान मिल पाता था। इसलिए नीची जाति के अधिकतर लोग टिन, सूखे पत्ते और बाँस की बनी झोपड़ियों में रहते थे।

1898 में सिटी ऑफ बॉम्बे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट की स्थापना हुई। इसका मुख्य उद्देश्य था शहर के बीचोबीच बसे मकानों को हटाना। 1918 में लगभग 64,000 लोगों को विस्थापित किया गया लेकिन उनमें से केवल 14,000 लोगों को पुनर्वासित किया गया। 1918 में एक रेंट एक्ट पारित किया गया ताकि किराये को नियंत्रण में रखा जा सके। लेकिन इससे मकानों की किल्लत और बढ़ गई क्योंकि मकान मालिकों ने किराये पर मकान देना ही बंद कर दिया।

बम्बई में भूमि विकास

बम्बई का निर्माण मुख्य रूप से रीक्लेमेशन के द्वारा हुआ यानि ऐसी जमीन पर हुआ था जिसे समंदर से निकाला गया था। सबसे पहला रीक्लेमेशन प्रोजेक्ट 1784 में शुरु हुआ था। इसके लिए आस पास से मिट्टी लाकर जमीन को भरा जाता था और दीवार या बाँध बनाकर समंदर के पानी को रोका जाता था। इस तरह से समय समय पर कई रीक्लेमेशन प्रोजेक्ट पर काम हुआ। 1870 तक यह शहर लगभग 22 वर्ग मील में फैल चुका था। आधुनिक बम्बई का मशहूर मेरीन ड्राइव भी रीक्लेमेशन वाली जमीन पर बना हुआ है। नवी मुम्बई को भी इसी तरह बसाया गया है।

सपनों का शहर: सिनेमा और संस्कृति

बम्बई में भीड़भाड़ और प्रदूषण की विकट समस्या है। इसके बावजूद बम्बई को सपनों का शहर माना जाता है क्योंकि बम्बई जाने के बाद कई लोगों के सफल और अमीर होने के सपने साकार हुए हैं। बम्बई सिनेमा की नगरी भी है क्योंकि हिंदी फिल्में मुख्य रूप से यहीं बनती हैं। पहली हिंदी फिल्म; राजा हरिश्चंद्र का निर्माण 1913 में दादासाहेब फाल्के ने किया था। 1925 तक बम्बई भारत की फिल्मी राजधानी बन चुका था। 1947 में बम्बई में 50 फिल्में बनीं थीं जिनमें लगभग 756 मिलियन रुपये लगे थे। 1987 तक बम्बई के फिल्म जगत में 520,000 लोग काम करने लगे थे।

फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले ज्यादातर लोग विभिन्न इलाकों से आये आप्रवासी थे। अधिकतर लोग पंजाब और खासकर लाहौर से आये थे। कुछ लोग बंगाल से तो कुछ मद्रास से भी आये थे। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आये लोगों के कारण बम्बई की फिल्म इंडस्ट्री का एक राष्ट्रीय स्वरूप बनकर तैयार हो पाया है।

शहर: पर्यावरण की चुनौतियाँ

शहरों के विकास के कारण पर्यावरण पर बुरे असर पड़े जो दूरगामी थे। इंग्लैंड में उन्नीसवीं सदी में घरों और कारखानों में कोयले का इस्तेमाल होता था जिससे गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हुईं। ज्यादातर शहरों में चिमनियों से निकलने वाले धुँए की वजह से आसमान हमेशा सलेटी रंग का दिखता था। कई लोगों को चिड़चिड़ेपन, सांस की परेशानी और मैले कपड़े की समस्या हुई। 1840 आते आते डर्बी, लीड्स और मैनचेस्टर जैसे शहरों ने शहर में धुँए पर नियंत्रण के लिए कानून बनाये। लेकिन इस कानून को लागू करना मुश्किल हो रहा था क्योंकि उद्योगपति नई और स्वच्छ टेक्नॉलोजी में निवेश नहीं करना चाहते थे।

भारत के प्रेसिडेंसी शहरों में भी ऐसी ही समस्याएँ देखने को मिलती थीं। घरों, रेलवे और उद्योग में कोयला मुख्य ईंधन था, जिसके जलने से पूरे शहर में काला धुँआ और काली राख छाई रहती थी। वायु प्रदूषण रोकने के लिए कई कानून बनाये गये लेकिन उनसे कोई ठोस परिणाम नहीं निकले।