यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय
राष्ट्रवादी भावना और रोमाँचक परिकल्पना
रोमांटिसिज्म एक सांस्कृतिक आंदोलन था जिसने राष्ट्रवादी भावना के एक खास स्वरूप को विकसित करने की कोशिश की थी। रोमांटिक कलाकार अक्सर विज्ञान और तर्क के बढ़ावे की आलोचना करते थे। उनका फोकस भावुकता, सहज ज्ञान और रहस्यों पर ज्यादा होता था। उन्होंने एक साझा विरासत, एक साझा सांस्कृतिक इतिहास, को राष्ट्र के आधार के रूप में बनाने की कोशिश की थी।
कई अन्य रोमांटिक; जैसे कि जर्मनी के तर्कशास्त्री जोहान गॉटफ्रिड हर्डर (1744 – 1803); का मानना था कि जर्मन संस्कृति के सही स्वरूप को वहाँ के आम लोगों में ढ़ूँढ़ा जा सकता था। इन रोमांटिक विचारकों ने देश की सच्ची भावना को लोकप्रिय बनाने के लिए लोक गीत, लोक कविता और लोक नृत्य का सहारा लिया। ऐसी स्थिति में जब अधिकाँश लोग निरक्षर थे तब आम लोगों की भाषा का इस्तेमाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता था। कैरोल करपिंस्की ने पोलैंड में अपने ओपेरा के माध्यम से राष्ट्रवाद के संघर्ष को और उजागर किया था। उन्होंने वहाँ के लोक नृत्यों; जैसे कि पोलोनैज और माजुर्का; को राष्ट्रीय प्रतीक में बदल दिया था।
राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा देने में भाषा ने भी अहम भूमिका निभाई थी। रूस द्वारा सत्ता हड़पने के बाद पोलैंड के स्कूलों से पॉलिश भाषा को हटा दिया गया और हर जगह रूसी भाषा को थोपा जाने लगा। रूसी शासन के खिलाफ 1831 में एक हथियारबंद विद्रोह भी शुरु हुआ था लेकिन उस आंदोलन को कुचल दिया गया। लेकिन इसके बाद पादरी वर्ग के सदस्यों ने पॉलिश भाषा का इस्तेमाल राष्ट्रीय विरोध के शस्त्र के रुप में करना शुरु किया। चर्च के सभी अनुष्ठानों और अन्य धार्मिक गतिविधियों में पॉलिश भाषा का ही इस्तेमाल होता था। रूसी भाषा में प्रवचन देने की मनाही करने पर रूसी अधिकारियों ने कई पादरियों को जेल भेज दिया या फिर साइबेरिया भेज दिया। इस प्रकार से पॉलिश भाषा का इस्तेमाल रूसी प्रभुत्व के खिलाफ विरोध का प्रतीक बन गया।
भूखमरी, कठिनाइयाँ और लोगों का विरोध
1830 का दशक यूरोप के लिए आर्थिक तंगी का दशक था। उन्नीसवीं सदी के शुरु के आधे वर्षों में जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी। बेरोजगारों में तेजी से इजाफा हुआ था। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन हुआ था। आप्रवासी लोग शहरों में ऐसी झुग्गी झोपड़ियों में रहते थे जहाँ पर बहुत भीड़-भाड़ होती थी।
उस काल में यूरोप के अन्य भागों की तुलना में इंग्लैंड में औद्योगिकीकरण ज्यादा तेजी से हुआ था। इसलिए इंग्लैंड की मिलों में बनने वाले सस्ते सामानों से यूरोप के अन्य देशों में छोटे उत्पादकों द्वारा बनाए जाने वाले सामानों को कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही थी। यूरोप के कुछ क्षेत्रों में अभी भी अभिजात वर्ग का नियंत्रण था और इसके कारण किसानों पर सामंतों के लगान का भारी बोझ था। एक साल के फसल के नुकसान और खाद्यान्नों की बढ़्ती हुई कीमतों के कारण कई गाँवों और शहरों में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
1848 का साल ऐसा ही एक बुरा साल था। भोजन की कमी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण पेरिस के लोग सड़कों पर उतर आए थे। विद्रोह इतना जबरदस्त था कि लुई फिलिप को वहाँ से पलायन करना पड़ा। एक नेशनल एसेंबली ने प्रजातंत्र की घोषणा कर दी। 21 साल से ऊपर की उम्र के सभी वयस्क पुरुषों को मताधिकार दे दिया गया। लोगों को काम के अधिकार की घोषणा भी की गई। रोजगार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय कार्यशाला बनाई गई।
उदारवादियों की क्रांति
जब गरीबों का विद्रोह 1848 में हो रहा था, तभी एक अन्य क्रांति भी शुरु हो चुकी थी जिसका नेतृत्व पढ़ा लिखा मध्यम वर्ग कर रहा था। यूरोप के कुछ भागों में स्वाधीन राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं थी; जैसे कि जर्मनी, इटली, पोलैंड और ऑस्ट्रो-हंगैरियन साम्राज्य में। इन क्षेत्रों के मध्यम वर्ग के स्त्री और पुरुषों ने राष्ट्रीय एकीकरण और संविधान की मांग शुरु कर दी। उनकी मांग थी कि संसदीय प्रणाली पर आधारित राष्ट्र का निर्माण हो। वे एक संविधान, प्रेस की आजादी और गुटबंदी की आजादी चाहते थे।