वन एवं वन्य जीव संसाधन
वन्यजीव संरक्षण
भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972:
1960 और 1970 के दशकों में पर्यावरण संरक्षकों ने वन्यजीवन की रक्षा के लिए नए कानून की माँग की थी। उनकी माँगों को मानते हुए सरकार ने भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 को लागू किया। इस अधिनियम के तहत संरक्षित प्रजातियों की एक अखिल भारतीय सूची तैयार की गई। बची हुई संकटग्रस्त प्रजातियों के शिकार पर पाबंदी लगा दी गई। वन्यजीवन के व्यापार पर रोक लगाया गया। वन्यजीवन के आवास को कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई। कई राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों ने नेशनल पार्क और वन्यजीवन अभयारण्य बनाए। कुछ खास जानवरों की सुरक्षा के लिए कई प्रोजेक्ट शुरु किये गये, जैसे प्रोजेक्ट टाइगर।
संरक्षण के लाभ:
संरक्षण से कई लाभ होते हैं। इससे पारिस्थितिकी की विविधता को बचाया जा सकता है। इससे हमारे जीवन के लिये जरूरी मूलभूत चीजों (जल, हवा, मिट्टी) का संरक्षण भी होता है।
सरकार द्वारा वनों का वर्गीकरण:
आरक्षित वन: जिस वन में शिकार और मानव गतिविधियों पर पूरी तरह प्रतिबंध हो उसे आरक्षित वन कहते हैं। कुल वन क्षेत्र के आधे से अधिक को आरक्षित वन का दर्जा दिया गया है। संरक्षण की दृष्टि से इन्हें सबसे बहुमूल्य माना जाता है।
रक्षित वन: जिस वन में शिकार और मानव गतिविधियों पर प्रतिबंध हो लेकिन यह उस वन पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों पर लागू न हो तो ऐसे वन को रक्षित वन कहते हैं। कुल वन क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को रक्षित वन का दर्जा दिया गया है। रक्षित वनों को आगे होने वाले नुकसान से बचाया जाता है।
अवर्गीकृत वन: जो वन ऊपर की दो श्रेणी में नहीं आते हैं उन्हें अवर्गीकृत वन कहा जाता है।
संरक्षण नीति की नई परिपाटी
जैव विविधता को बढ़ाना: अब कुछ गिने चुने कारकों पर ध्यान देने की बजाय पूरी जैव विविधता पर ध्यान दिया जाता है। इसका असर यह हुआ है कि अब न केवल बड़े स्तनधारियों पर ध्यान दिया जाता है बल्कि कीटों पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। 1980 और 1986 के वन्यजीवन अधिनियम के बाद नई अधिसूचनाएँ जारी की गईं। इन अधिसूचनाओं के अनुसार अब कई सौ तितलियों, मॉथ, बीटल और एक ड्रैगनफ्लाई को भी रक्षित जीवों की श्रेणी में रखा गया। 1991 में इस लिस्ट में पादप की छ: प्रजातियों को भी रखा गया है।