वन एवं वन्य जीव संसाधन
वनस्पतिजात और प्राणिजात के ह्रास के कारण:
कृषि में विस्तार: भारतीय वन सर्वेक्षण के आँकड़े के अनुसार 1951 से 1980 के बीच 262,000 वर्ग किमी से अधिक के वन क्षेत्र को कृषि भूमि में बदल दिया गया। इसके साथ ही आदिवासी क्षेत्रों के एक बड़े भूभाग को झूम खेती और पेड़ों की कटाई से नुकसान पहुँचा है।
संवर्धन वृक्षारोपण: जब व्यावसायिक महत्व के किसी एक प्रजाति के पादपों का वृक्षारोपण किया जाता है तो इसे संवर्धन वृक्षारोपण कहते हैं। भारत के कई भागों में संवर्धन वृक्षारोपण किया गया ताकि कुछ चुनिंदा प्रजातियों को बढ़ावा दिया जा सके। इससे अन्य प्रजातियों का उन्मूलन हो गया।
विकास परियोजनाएँ: आजादी के बाद से बड़े पैमाने वाली कई विकास परियोजनाओं को मूर्तरूप दिया गया। इससे जंगलों को भारी क्षति का सामना करना पड़ा। 1951 से आजतक नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5,000 वर्ग किमी से अधिक वनों का सफाया हो चुका है।
खनन: खनन से कई क्षेत्रों में जैविक विविधता को भारी नुकसान पहुँचा है। उदाहरण: पश्चिम बंगाल के बक्सा टाइगर रिजर्व में डोलोमाइट का खनन।
संसाधनों का असमान बँटवारा: अमीर और गरीबों के बीच संसाधनों का असमान बँटवारा होता है। इससे अमीर लोग संसाधनों का दोहन करते हैं और पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।
कम होते संसाधनों के सामाजिक प्रभाव:
संसाधनों के कम होने से समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। कुछ चीजें इकट्ठा करने के लिये महिलाओं पर अधिक बोझ होता है; जैसे ईंधन, चारा, पेयजल और अन्य मूलभूत चीजें। इन संसाधनों की कमी होने से महिलाओं को अधिक काम करना पड़ता है। कुछ गाँवों में पीने का पानी लाने के लिये महिलाओं को कई किलोमीटर पैदल चलकर जाना होता है।
वनोन्मूलन से बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक विपदाएँ बढ़ जाती हैं जिससे गरीबों को काफी कष्ट होता है।
वनोन्मूलन से सांस्कृतिक विविधता में भी कमी आती है। कुछ लोग अपने पारंपरिक तौर तरीकों से जीवनयापन करने लिये वनों पर निर्भर रहते थे। ऐसे लोगों को वनोन्मूलन के कारण जीविका के नये साधनों की तलाश में निकलना पड़ता है। इस प्रक्रिया में उनकी जड़ें छूट जाती हैं और उन्हें अपने पारंपरिक आवास और संस्कृति को छोड़ने को विवश होना पड़ता है।