न्यायपालिका
भारत में कानून का शासन चलता है। इसका मतलब है कि यहाँ के कानून हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होते हैं। कानून को लागू कराने के लिए यहाँ एक न्यायिक तंत्र है। इस तंत्र में अदालतें हैं जहाँ कोई भी आदमी पहुँच सकता है जब किसी कानून का उल्लंघन होता है। राज्य का एक अंग होने के नाते भारत के लोकतंत्र में न्यायपालिका की अहम भूमिका है।
न्यायपालिका की भूमिका
अदालतें कई तरह के मामलों में फैसले लेती हैं। अदालतों के मुख्य काम नीचे दिए गए हैं।
विवादों का निबटारा: न्याय व्यवस्था एक तरीका प्रदान करती है जिससे विवादों का निबटारा हो सके। ये विवाद नागरिकों के बीच, नागरिक और सरकार के बीच, दो राज्य सरकारों के बीच और केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच हो सकते हैं।
न्यायिक समीक्षा: संविधान की व्याख्या का मुख्य अधिकार न्यायपालिका के पास होता है। इस नाते, न्यायपालिका के पास यह अधिकार होता है कि अदालत को यदि यह लगता है कि संसद द्वारा पारित कोई कानून संविधान के मौलिक ढ़ाँचे का उल्लंघन करता है तो न्यायपालिका उस कानून को खारिज कर सकती है। इस प्रक्रिया को न्यायिक समीक्षा कहते हैं।
कानून की रक्षा और मौलिक अधिकारों का क्रियान्वयन: यदि किसी भी नागरिक को लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह अदालत के पास जा सकता है।
स्वतंत्र न्यायपालिका
अगर न्यायपालिका पर राजनेताओं की पकड़ हो जाएगी तो कोई भी जज स्वतंत्र फैसले नहीं ले पाएगा। ऐसा होने से जज को हमेशा राजेंताओं के पक्ष में निर्णय लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। भारत की न्यायपालिका यहाँ की सरकार से स्वतंत्र है। इसलिए यहाँ की न्यायपालिका निष्पक्ष फैसले सुनाने में सक्षम है।
आपने शक्तियों के बँटवारे के बारे में पढ़ा होगा। इसका मतलब है कि राज्य के विभिन्न अंगों में सत्ता का बँटवारा किया गया है ताकि कोई भी एक अंग बहुत अधिक शक्तिशाली न हो जाए और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करने लगे। इसलिए न्यायपालिका के काम में विधायिका या कार्यपालिका का दखल नहीं चलता है।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार के अन्य अंगों की कम से कम दखलंदाजी होती है। एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद किसी जज को उसके पद से हटाना बहुत मुश्किल होता है।
स्वतंत्र न्यायपालिका होने के कारण यहाँ की अदालतें इस बात को सुनिश्चित कर पाती हैं कि विधायिका और कार्यपालिका अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। साथ में कोर्ट को इस बात की शक्ति भी मिल जाती है कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सके।
कोर्ट की संरचना
हमारे देश में अदालतें तीन स्तरों पर होती हैं। सबसे निचले स्तर पर कई अदालतें हैं जबकि सबसे ऊपरी स्तर पर केवल एक अदालत है। अधिकतर लोगों का साबका निचली अदालतों से ही होता है, जिन्हें अधीनस्थ न्यायालय या जिला न्यायालय कहते हैं। निचली अदालतें जिलों या तहसीलों या छोटे शहरों में होती हैं। हर जिले में एक जिला जज होता है। हर राज्य में एक हाई कोर्ट या उच्च न्यायालय होता है। भारत में कुछ हाई कोर्ट ऐसे हैं जो एक से अधिक राज्यों के लिए सर्वोच्च होते हैं। जैसे, पंजाब और हरियाणा के लिए एक ही हाई कोर्ट है जो चंडीगढ़ में है। असम, नागालैंड, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लिए एक हाई कोर्ट गुवाहाटी में है।
सुप्रीम कोर्ट या सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर आता है और यह नई दिल्ली में स्थित है। भारत के मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट की अध्यक्षता करते हैं।
यदि किसी व्यक्ति को निचली अदालत का फैसला पसंद नहीं आता है तो उसे हाई कोर्ट में अपील करने का अधिकार है। यदि उसे हाई कोर्ट का फैसला भी पसंद नहीं आता है तो उसे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बाकी अन्य अदालतों को मानना पड़ता है।
विधि व्यवस्था की विभिन्न शाखाएँ
भारत में विधि व्यवस्था की दो शाखाएँ हैं, फौजदारी कानून और दीवानी कानून। नीचे दिए गए टेबल में इनके बीच के अंतर को दिखाया गया है।
फौजदारी कानून | दीवानी कानून |
---|---|
ऐसे कामों या व्यवहारों से संबंधित है जिन्हें कानूनी तौर पर अपराध माना जाता है। जैसे: चोरी, हत्या, महिला उत्पीड़न, आदि। | ऐसे मामले जिनमें किसी के अधिकारों का उल्लंघन होता है। जैसे: जमीन या वस्तु की खरीद बिक्री का विवाद, किराया, तलाक, आदि। |
इन मामलों में सबसे पहले पुलिस के पास प्राथमिकी या एफ आई आर दर्ज होती है। उसके बाद पुलिस उस मामले की छान बीन करती है और फिर कोर्ट में केस फाइल करती है। | ऐसे मामले में किसी भी प्रभावित पार्टी द्वारा कोर्ट में एक पेटीशन (याचिका) दायर की जाती है। |
अपराध साबित होने पर आरोपी को जेल की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकता है। | कोर्ट प्रभावित व्यक्ति को उचित मुआवजा देने का फैसला सुनाता है। |
अदालत तक पहुँच
सैद्धांतिक रूप से भारत के हर नागरिक की कोर्ट तक पहुँच है। इसका मतलब है कि हर नागरिक को कोर्ट द्वारा न्याय पाने का अधिकार है। लेकिन धरातल पर कुछ और होता है। कानूनी प्रक्रिया लंबी और महंगी होती है। इसलिए अधिकतर लोग (खासकर गरीब तबके के लोग) अदालतों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। मान लीजिए कि कोई आदमी दिहाड़ी मजदूर है। अगर वह कोर्ट के चक्कर लगाएगा तो कमाएगा और खाएगा कहाँ से। ऐसे लोगों को अक्सर न्याय से वंचित रहना पड़ता है। किसी भी आम आदमी के लिए कोर्ट तक पहुँच का मतलब है न्याय तक पहुँच।
आम आदमी की इस समस्या को सुलझाने के लिए 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका (पी आई एल) की शुरुआत की। इसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति आम आदमी की समस्या को लेकर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर सकता है ताकि लोगों को न्याय मिल सके।
कई बार ऐसा भी होता है जब कोर्ट का फैसला आम आदमी के हितों के विपरीत होता है। इसे समझने के लिए कुछ ऐसे आदेशों का उदाहरण ले सकते हैं जब कोर्ट किसी झुग्गी झोपड़ी को खाली कराने का आदेश देता है। मजदूर तबके के लोग अक्सर उन कारखानों के पास झुग्गी बनाकर रहने लगते हैं जहाँ वे काम करते हैं। अगर उनकी झुग्गियों को उजाड़ा जाता है तो उनकी आजीविका छिन जाती है। 1985 के ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के केस में कोर्ट ने झुग्गी में रहने वाले लोगों के पक्ष में फैसला दिया था ताकि उन लोगों की आजीविका सुरक्षित रहे।