8 नागरिक शास्त्र

हाशियाकरण की समझ

हाशिया एक उर्दू शब्द है जिसका मतलब होता है किनारा। यहाँ पर किनारे का मतलब होता है मुख्य बिंदु से बाहर होना। आपकी किताब या कॉपी में दायें और बायें किनारों पर खाली जगह होती है, उसे हाशिया कहते हैं। हाशिये पर अक्सर कुछ भी लिखा नहीं जाता है। इसी तरह समाज में जो लोग मुख्य धारा से अलग-थलग रहते हैं उन्हें हाशिये पर समझा जाता है यानि उनका हाशियाकरण हो जाता है।

हर समाज में कुछ समूह ऐसे होते हैं, जिन्हें हाशिये पर या समाज से बाहर समझा जाता है। ऐसे लोग समाज के बहुसंख्यक लोगों के विपरीत अलग तरह की भाषा बोलते हैं, उनके रिवाज अलग होते हैं और उनके धर्म भी अलग होते हैं। समाज के हाशिये पर रहने वाले लोग अक्सर गरीबी की वजह से नीची नजर से देखे जाते हैं और उन्हें इंसानों की तरह नहीं देखा जाता है। कई बार हाशिये पर रहने वाले लोगों को शक और भय की नजर से भी देखा जाता है। समाज की मुख्य धारा में रहने वाले लोगों के पास जमीन, संपत्ति होती है और वे लोग शिक्षित और राजनैतिक प्रभुता वाले होते हैं। लेकिन हाशिये पर रहने वाले लोग अक्सर शक्ति से विहीन होते हैं और उनके पास नाममात्र को धन संपत्ति होती है। इस तरह से हाशियाकरण जीवन के हर पहलू में होता है, यानि लोग सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से भी किनारे पर ही रहने को मजबूर होते हैं।

आदिवासी

आदिवासी शब्द का मतलब है मूल निवासी। ये लोग सदियों से जंगलों के आसपास रहते आये हैं। भारत की आबादी में आदिवासियों की जनसंख्या 8 प्रतिशत है। भारत के प्रमुख खनन और औद्योगिक क्षेत्र आदिवासी इलाकों में हैं। आदिवासियों में बहुत विविधता पाई जाती है। हमारे देश में आदिवासियों की 500 से ऊपर प्रजातियाँ हैं। आदिवासी समूह बिलकुल अलग है क्योंकि उनके समुदाय में ऊँच नीच का बहुत कम भेद रहता है। इस तरह से वे जाति वर्ण वाले समुदायों या राजा द्वारा शासित समुदायों से बिलकुल अलग होते हैं।

आदिवासियों की प्रचलित छवि

आदिवासियों को हमेशा एक विशेष तरीके से पेश किया जाता है। स्कूल के फंक्शन या किसी अन्य फंक्शन में आदिवासियों को अक्सर रंग बिरंगे कपड़ों में और अजीबोगरीब मुकुट पहने हुए नाचते हुए दिखाया जाता है।

इसके अलावा, हम आदिवासियों के बारे में बहुत कम जानते हैं। लोगों के बीच अक्सर एक गलत धारणा बन जाती है कि आदिवासी अनोखे, पिछड़े और प्रागैतिहासिक होते हैं। आदिवासियों की कम तरक्की के लिए भी उन्हीं पर आरोप लगाया जाता है कि वे तरक्की करना ही नहीं चाहते क्योंकि वे अपने आप को बदलना नहीं चाहते हैं।

आदिवासी और विकास

उन्नीसवीं सदी तक हमारे देश के एक बड़े भूभाग में जंगल हुआ करते थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आदिवासियों की जंगलों में गहरी पैठ थी और जंगल के बारे में उनका ज्ञान भी उत्तम था। उनपर किसी भी बड़े राज्य या साम्राज्य का शासन नहीं था। बल्कि बड़े बड़े साम्राज्य कई वन संसाधनों के लिए आदिवासियों पर निर्भर रहते थे।

अंग्रेजी शासन शुरु होने से पहले, आदिवासियों का पेशा था शिकार करना, भोजन संग्रह करना और झूम खेती करना। इसलिए अधिकतर आदिवासी घुमंतू होते थे यानि एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। कुछ आदिवासी एक जगह टिककर भी रहते थे। लेकिन पिछले दो सौ वर्षों के दौरान विभिन्न आर्थिक बदलावों, वन नीतियों और राजनीतिक शक्तियों द्वारा उन्हें उनके वनों से बाहर कर दिया गया। धीरे धीरे उन्हें मजबूर होकर बाहर पलायन करना पड़ा ताकि वे बागानों, निर्माण स्थलों, उद्योग धंघों, आदि में मजदूर के रूप में काम कर सकें। जहाँ आदिवासी रहते थे वे इलाके खनिज संपदा और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न हैं। बड़े उद्योगों को बनाने के क्रम में आदिवासियों के हाथों से इन इलाकों को छीन लिया गया।

इस तरह से अपनी जमीन और अपने जंगलों से नाता टूट जाने के कारण आदिवासियों की जीविका का मुख्य साधन समाप्त होता चला गया। शहरों में कम मजदूरी पर काम करने की मजबूरी के कारण उनके लिए गरीबी का एक अंतहीन सिलसिला शुरु हो गया। आज ग्रामीण इलाकों के 45% आदिवासी और शहरी इलाकों के 35% आदिवासी गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। इसका असर यह हुआ कि अधिकांश आदिवासी बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। आदिवासियों की साक्षरता दर भी काफी कम है।

अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण

जो समुदाय अन्य समुदाय की तुलना में कम संख्या में होता है उसे अल्पसंख्यक कहा जाता है। लेकिन इस नामकरण का सही अर्थ नम्बर की सीमा से कहीं ज्यादा होता है। अल्पसंख्यकों को सत्ता में हिस्सेदारी, संसाधनों तक पहुँच और सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों की कमी का सामना करना पड़ता है। भारत के संविधान ने इस बात को स्वीकारा है कि बहुसंख्यक बड़े आराम से किसी देश की सामाजिक दिशा को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में अल्पसंख्यकों के ऊपर हाशियाकरण का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने के लिए संविधान में कई प्रावधान बनाए गए हैं।

यदि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं होते हैं तो अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है। भारत की सांस्कृतिक विविधता, समानता और न्याय को सुरक्षित रखने के लिए संविधान में कई प्रावधान हैं। यदि किसी भी नागरिक को लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है तो न्याय मांगने के लिए वह अदालत जा सकता है।

मुसलमानों का हाशियाकरण

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी में 14.1 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। अल्पसंख्यक होने के कारण मुसलमानों को सामाजिक और आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिल पाया है। मुसलमानों की कम तरक्की के कारणों की जाँच करने के लिए जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में 2005 में एक कमिटी बनाई गई थी। सच्चर कमिटी ने मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दशा का अध्ययन किया और उनके विकास के लिए कुछ सुझाव दिए। इस कमिटी ने पाया कि देश में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरह ही है। मुसलमानों की साक्षरता दर, अन्य समुदायों के मुकाबले कम है। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी बहुत कम है। अपने आप को सुरक्षित माहौल में रखने के उद्देश्य से मुसलमान अक्सर उन क्षेत्रों में रहना पसंद करते हैं जहाँ अधिकतर मुसलमान ही रहते हैं। इस परिघटना को घेटोआइजेशन कहते हैं।