हाशियाकरण से निपटना
आदिवासियों, दलितों, मुसलमानों, महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले अन्य समूहों का मानना है कि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते उन्हें भी समान अधिकार मिले हुए हैं। इनमें से कई अपनी चिंताओं के निवारण के लिए संविधान से उम्मीद लगाए रहते हैं। इन समूहों को शोषण से बचाने के लिए अधिकारों को कानून का रूप दिया जाता है। कई नीतियाँ बनती हैं ताकि हाशिये पर रहने वाले समूहों को भी विकास का लाभ मिल सके।
मौलिक अधिकारों को लागू करना
हमारे समाज और राजनीति को लोकतांत्रिक बनाने के लिए संविधान में कई सिद्धांत बने हैं। उन्हें मौलिक अधिकारों की लिस्ट में परिभाषित किया गया है। ये अधिकार भारत के हर नागरिक को समान रूप से मिले हुए हैं। जहाँ तक हाशिये पर रहने वाले लोगों का सवाल है, उन्होंने दो तरीकों से इन अधिकारों का उपयोग किया है। पहला तरीका यह है कि मौलिक अधिकारों पर जोर देकर उन्होंने सरकार को इस बात के लिए बाध्य किया है कि सरकार उनपर हो रहे अन्याय को माने। दूसरा तरीका यह है कि इन लोगों ने सरकार को मौलिक अधिकारों के अनुसार नियम बनाने के लिए प्रभावित किया है।
संविधान के अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि अस्पृश्यता या छुआछूत समाप्त हो चुकी है। इसका मतलब है कि कोई भी किसी दलित को शिक्षित होने, मंदिर में जाने या जन सुविधाओं का इस्तेमाल करने से रोक नहीं सकता है। इसका यह भी मतलब है कि किसी भी रूप में छुआछूत की वकालत करना एक लोकतांत्रिक सरकार बर्दास्त नहीं करेगी। आज छुआछूत एक दंडनीय अपराध है।
संविधान में और भी कई सेक्शन हैं हो छूआछूत के खिलाफ बात करते हैं। उदाहरण के लिए, संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं होगा। दलितों ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल समानता प्राप्त करने के लिए किया है।
हाशियाकरण के खिलाफ कानून
सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए कानून बनाती है। हमारे देश में शोषित समूह के लिए विशेष कानून और नीतियाँ बनी हैं। कई बार किसी कमिटी के संशोधन पर या किसी सर्वे के आधार पर कानून और नीतियाँ बनती हैं। उसके बाद सरकार इन नीतियों को लागू करने का हर प्रयास करती है ताकि विशेष समूह के लोगों को बराबर अवसर मिल सकें।
सामाजिक न्याय
दलितों या आदिवासियों की बहुल जनसंख्या वाले क्षेत्रों में केंद्र और राज्य की सरकारें विशेष योजनाएँ लागू करती हैं। उदाहरण के लिए, दलितों और आदिवासी छात्रों के लिए सस्ते दर पर या मुफ्त होस्टल बनाए जाते हैं ताकि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें। हो सकता है कि शिक्षा की उचित सुविधाएँ उनके घरों के आस पास न हों।
इसके अलावा समाज में समानता लाने के लिए सरकार कई कानून भी बनाती है। सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ऐसा ही एक कानून है। यह एक महत्वपूर्ण लेकिन विवादित कानून भी है। हमें यह समझने की जरूरत है कि जिन लोगों को सदियों से शिक्षा और कौशल हासिल करने से रोका गया उनके उत्थान के लिए यह कानून जरूरी है।
दलितों और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा
हाशिये पर रहने वाले लोगों को भेदभाव और शोषण से बचाने के लिए कुछ विशेष कानून बनाए गए हैं।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
दलितों और अन्य शोषित समूहों की मांग के बाद सरकार ने इस अधिनियम को 1989 में लागू किया। यह ध्यान रखना होगा कि दलितों और आदिवासियों को हर दिन बुरे व्यवहार और बेइज्जती का सामना करना पड़ता है। यह व्यवहार सदियों से चला आ रहा है लेकिन 1970 और 1980 के दशक में इसने हिंसक रूप ले लिया। इसी दौरान दक्षिण भारत के कई दलित समूहों ने अपने अधिकारों की वकालत शुरु कर दी थी, और उन्होंने हर उस काम को करने से मना कर दिया जो उस समूह के लोगों को करने के लिए बाध्य किया जाता था। पुरानी मान्यताओं के अनुसार, मैला ढ़ोना, कूड़ा साफ करना, मरे हुए मवेशियों को ठिकाने लगाना, आदि काम दलितों के लिए उचित है। लेकिन आज समय बदल चुका है और हर किसी को अपने कौशल और अपनी इच्छा के अनुसार कोई पेशा चुनने का अधिकार होना चाहिए।
इस अधिनियम में कई अपराधों की बात की गई है। उनकी लिस्ट नीचे दी गई है।
- दलितों को कई तरीके से प्रताड़ित किया जाता है। इनमें से कुछ तो शारीरिक यातना के रूप में होते हैं और नैतिक रूप से गिरे हुए काम होते हैं। किसी भी दलित या आदिवासी को कोई अखाद्य पदार्थ या गंदी चीज खाने या पीने से बाध्य करना दंडनीय अपराध है।
- किसी भी दलित या आदिवासी के कपड़े उतारना और उसे नंगा कर के घुमाना या उसके चेहरे पर कालिख पोतना एक अपराध है क्योंकि यह किसी की भी इज्जत के लिए बहुत बुरी बात है।
इस अधिनियम में उन कामों का भी वर्णन जिसके द्वारा किसी दलित या आदिवासी को उसके सीमित संसाधनों से अलग किया जाता है और उसे गुलामी करने को मजबूर किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी दलित की जमीन को हड़प लेता है या उसपर खेती करता है तो उसे सजा मिलेगी। किसी दलित या आदिवासी की जमीन को आप अपने नाम ट्रांसफर नहीं कर सकते।
आदिवासियों के लिए इस अधिनियम का मतलब
आदिवासी कार्यकर्ता अपनी परंपरागत जमीन पर अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए इस अधिनियम का इस्तेमाल करते हैं। उनकी मांग है कि यदि कोई आदिवासी की जमीन पर कब्जा करता है तो उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए। ऐसा कई बार हुआ है कि उद्योगपतियों के दवाब में आकर कई सरकारों ने आदिवासियों को उनके जमीन से बेदखल किया है। आज आदिवासी जागरूक हो चुके हैं और अपनी जमीन पर अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं।