बाजार में एक कमीज
Putting out system (दादन व्यवस्था)
इस व्यवस्था में व्यापारी कच्चा माल देते हैं और फिर तैयार माल को लेते हैं। व्यापारी अपने ग्राहकों से ऑर्डर लेता है। वह बुनकरों के बीच काम बाँट देता है और उन्हें ऑर्डर के हिसाब से अलग-अलग तरह के कपड़े बनाने के बारे में निर्देश देता है।
बुनकर को लाभ
खर्च में कटौती: बुनकरों को धागा खरीदने में पैसा नहीं खर्च करना होता है। अंतिम उत्पाद को बेचने में होने वाले खर्चे में भी बचत होती है। यह ध्यान रखना होगा कि ग्राहक ढ़ूँढ़ने में और बिक्री करने में कई तरह के खर्चे होते हैं।
काम की स्पष्टता: बुनकरों को यह ठीक से पता होता है कि किस तरह का कपड़ा बनाना है और कितनी मात्रा में बनाना है।
इस तरह, बुनकर कच्चे माल और बाजार के लिए व्यापारियों पर निर्भर होते हैं। इस तरह की निर्भरता के कारण व्यापारी प्रभावशाली बन जाते हैं।
बुनकर को हानि
कम पगार: व्यापारी अक्सर बुनकरों को बहुत कम मेहनताना देते हैं।
सूचना की कमी: बुनकर के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं होता है कि वे किसके लिए कपड़े बना रहे हैं और कपड़ा किस कीमत पर बिकेगा। यह बाजार व्यापारी का बाजार होता है क्योंकि यह व्यापारी के हितों के लिए अधिक काम करता है।
बुनकर की लागत: सबसे अधिक लागत करघे की होती है। करघा खरीदने के लिए बुनकर या तो अपनी जमा पूँजी लगाता है या फिर उधार लेता है। एक करघे की कीमत 20,000 रु होती है। करघे पर अकेले काम करना संभव नहीं होता है। इसलिए बुनकर के परिवार के लोग उसका हाथ बँटाते हैं। बुनकर को हर दिन बारह बारह घंटे काम करना पड़ता है। इतनी मेहनत के बावजूद बुनकर महीने के 3,500 रु ही कमा पाता है।
दिल्ली की कपड़ा फैक्टरी
यहाँ पर व्यवसायी के पास अधिक शक्ति होती है। वह सप्लायर से कम कीमत में खरीदता है, उच्च क्वालिटी की अपेक्षा रखता है, डिलीवरी की तारीख का सख्ती से पालन करता है और छोटी मोटी त्रुटि आने पर भी पूरा का पूरा माल वापस कर देता है।
फैक्टरी का मालिक खर्चे में कटौती करने के लिए हर हथकंडे अपनाता है। वह कामगारों को कम से कम पगार देता है और उनसे अधिक से अधिक काम लेता है। इससे वह विदेशी खरीददारों को कम से कम कीमत पर माल दे पाता है और अपने मुनाफे को अधिकतम स्तर तक ले जाता है।
कपड़ा फैक्टरी का हाल
यहाँ काम करने वालों को अस्थाई रूप से नियुक्त किया जाता है। जब भी मालिक की मर्जी हो उन्हें काम से निकाल दिया जाता है। कुशलता के हिसाब से कामगारों की पगार तय होती है। सबसे अधिक पगार दर्जी को मिलती है लेकिन उसे भी 3000 रु महीने ही मिल पाते हैं। छोटे मोटे कामों (कटाई, बटन लगाना, इस्तरी करना, आदि) के लिए महिलाओं को रखा जाता है। इन कामों के लिए उन्हें मामूली पगार मिलती है।
अमेरिका में कमीज
अमेरिका और यूरोप की बड़ी दुकानों में हो सकता है सैकड़ों कमीजें ग्राहकों को ललचाती हों। यदि एक कमीज की कीमत 26 डॉलर होगी तो डॉलर की रुपए में कीमत से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस शर्ट की कीमत लगभग 1800 रु होगी। अमेरिका के दुकानदार ने उस शर्ट को 500 रु से अधिक में नहीं खरीदा होगा। यानि वह एक कमीज पर मोटा मुनाफा कमा रहा है। दिल्ली की कपड़ा फैक्टरी के मालिक ने कमीज पर थोड़ा बहुत मुनाफा कमाया होगा। लेकिन बुनकर और किसान ने तो बहुत ही कम पैसे कमाए होंगे।
बाजार और समानता
लोकतंत्र का एक मौलिक सिद्धांत है समानता। बाजार में उचित मेहनताना भी उसी समानता के दायरे में आता है। लेकिन विदेश का व्यवसायी बहुत मोटा मुनाफा कमाता है, वहीं पर दिल्ली का निर्माता औसत मुनाफा कमाता है। इरोड के व्यापारी का मुनाफा उससे भी कम होता है। बुनकर और किसान तो बस इतना कमा पाते हैं कि किसी तरह गुजारा हो सके।
बाजार से यह लाभ होता है कि इसकी वजह से लोगों को काम धंधा मिल पाता है। छोटे बड़े हर किसी के लिए बाजार खुला रहता है। लेकिन बाजार में अधिक मुनाफा हमेशा धनी और प्रभावशाली व्यक्तियों को ही होता है। बाकी लोग जीतोड़ मेहनत के बावजूद बस इतना कमा पाते हैं कि उनके परिवार का गुजारा हो पाए।