मध्ययुगीन भारत
भारतीय महाद्वीप के संदर्भ में 8 वीं से 18 वीं सदी के बीच के समय को भारत के इतिहास का मध्ययुगीन काल माना जाता है। कई इतिहासकार इसे दो भागों में बाँटते हैं। 13 वीं सदी तक के समय को मध्ययुग का शुरु का दौर माना जाता है, और 13 वीं सदी के बाद के समय को मध्ययुग का अंतिम दौर माना जाता है। इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप में कई नाटकीय बदलाव हुए।
भारत के नक्शे
समय बीतने के साथ किसी भी भूभाग का नक्शा बदल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि उस भूभाग के बारे में जानकारियाँ पहले से बेहतर हो जाती हैं। इसे समझने के लिए इस अध्याय में दिए गए भारत के दो नक्शों को देखना होगा।
पहला नक्शा अरब के कार्टोग्राफर अल इदरिसी ने 1154 में बनाया था। इस नक्शे को देखकर आप भारत को पहचान ही नहीं पाएँगे क्योंकि जहाँ उत्तरी भारत को होना चाहिए वहाँ दक्षिणी भारत को दिखाया गया है। श्रीलंका को भारत के ऊपर यानि उत्तर में दिखाया गया है। शहरों के नाम अरबी भाषा में लिखे हुए हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश के कन्नौज का भी नाम है।
दूसरा नक्शा किसी फ्रांसीसी कार्टोग्राफर ने 1720 में बनाया था, यानि यह पहले नक्शे से 600 वर्षों बाद बना था। यह नक्शा हमारे देश के आधुनिक नक्शे से बहुत कुछ मिलता जुलता है। इस नक्शे में तटीय इलाकों को काफी बारीकी से दिखाया गया है। यूरोप के नाविक और व्यापारी अपनी यात्रा के लिए इस नक्शे का इस्तेमाल करते थे।
इन दोनों नक्शों की तुलना करने पर पता चलता है कि उन 600 वर्षों में कार्टोग्राफी के क्षेत्र में कितनी तरक्की हुई होगी। नक्शों और दस्तावेजों का अध्ययन हमेशा उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए करना जरूरी होता है।
पुरानी और नई शब्दावली
समय बदलने के साथ जानकारियाँ बदलती हैं। कई शब्दों के अर्थ उनके इस्तेमाल की पृष्ठभूमि के हिसाब से बदल जाते हैं। इसलिए व्याकरण और शब्दों के लिहाज से भाषा में बड़े बदलाव आ जाते हैं। इसे समझने के लिए बदलते समय के साथ हिंदुस्तान के बदलते हुए अर्थ को जानने की कोशिश करते हैं।
आज हिंदुस्तान का मतलब हम आधुनिक भारत देश से लगाते हैं। लेकिन जब 13 वीं सदी में फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने हिंदुस्तान शब्द का इस्तेमाल किया था तो भौगोलिक संदर्भ में इसका मतलब था पंजाब, हरियाणा और गंगा यमुना के बीच वाला इलाका। राजनैतिक संदर्भ में हिंदुस्तान का मतलब था दिल्ली के सुल्तान के अधीन आने वाले इलाके। दिल्ली सल्तनत का दायरा बढ़ने के साथ साथ हिंदुस्तान शब्द का दायरा भी बढ़ता गया। लेकिन दक्षिण भारत कभी भी उस दायरे में नहीं आया।
सोलहवीं सदी में बाबर ने हिंदुस्तान शब्द का इस्तेमाल भारतीय उपमहाद्वीप के भूगोल, संस्कृति, प्राणिजात और लोगों के लिए किया था। चौदहवीं सदी में अमीर खुसरो ने हिंदुस्तान शब्द का इस्तेमाल कुछ कुछ वैसे ही किया था जैसे बाबर ने किया था।
विदेशी का मतलब
आज यदि कोई भारत देश का नहीं है तो उसे हम विदेशी कहते हैं। लेकिन मध्ययुगीन भारत में किसी गाँव में उस व्यक्ति को विदेशी कहा जाता था जो उस समाज या संस्कृति का हिस्सा नहीं था। यानि कोई शहरी व्यक्ति किसी गाँव में जाकर विदेशी बन जाता था। उसी गाँव के किसान एक दूसरे के लिए विदेशी नहीं होते थे चाहे वे अलग-अलग धर्म, जाति, आदि के क्यों न हों।
इतिहास के स्रोत
इतिहासकार किसी भूभाग का इतिहास समझने के लिए कई स्रोतों पर निर्भर होते हैं। यह कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे किस समय का इतिहास है, और कैसी जानकारी इकट्ठा करनी है।
मध्ययुगीन इतिहास की जानकारी के लिए कुछ स्रोत उसके पहले के समय जैसे हैं तो कुछ बिलकुल अलग हैं। इतिहास जानने के लिए सिक्के, शिलालेख, स्थापत्य (भवन निर्माण कला), लिखित रेकॉर्ड, आदि पहले भी इस्तेमाल होते थे और अब भी होते हैं।
लेकिन कुछ स्रोतों में बदलाव भी हुए हैं, जो मध्ययुग में होने वाले कई नाटकीय बदलाव के कारण हुए हैं। मध्ययुग में देखा गया है कि लिखित रेकॉर्ड की संख्या और विविधता में गजब की वृद्धि हुई थी। मध्ययुग से पहले अधिकतर पांडुलिपियाँ पेड़ों की खाल, चमड़ा और गुफा की दीवारों पर लिखी जाती थीं। लेकिन मध्ययुग में कागज सस्ता हो गया और सुलभ हो गया। इसलिए इस युग की अधिकतर पांडुलिपियाँ कागज पर लिखी मिलती हैं।
कागज का इस्तेमाल
कागज का इस्तेमाल धार्मिक किताबें, शासकों के काम के बारे में, चिट्ठी लिखने, संतों के प्रवचन, दस्तावेज, आदि लिखने के लिए होता था। धनी लोग, शासक, मठ और मंदिरों द्वारा पांडुलिपियाँ बनवाई जाती थीं। ये पांडुलिपियाँ आज के इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत का काम करती हैं।
पांडुलिपि की नकल बनाना
उस जमाने में छपाई नहीं होती थी, इसलिए लिपिक वर्ग के लोग हाथों से ही पांडुलिपि की नकल बनाया करते थे। कई बार किसी के हाथ की लिखावट स्पष्ट न होने के कारण यह एक मुश्किल काम होता था। इसलिए कॉपी करते समय लिपिक को कई बार यह अनुमान लगाना पड़ता था कि मूल लेखक ने क्या लिखा होगा। इसके परिणामस्वरूप कॉपी करते समय छोटे मोटे लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव हो ही जाते थे। कई बार नकल होने के बाद मूल पांडुलिपि और उसकी नकल में बड़ा भारी अंतर आ जाता था। आज मूल पांडुलिपि शायद ही उपलब्ध है, इसलिए इस तरह का अंतर बहुत ही गंभीर समस्या उत्पन्न करती है। बात को सही तरह से समझने के लिए इतिहासकार कई नकलों का अध्ययन करते हैं ताकि यह अनुमान लगा सकें कि मूल लेखक ने क्या लिखा होगा।
कई बार मूल लेखक भी अपनी रचना को दोबारा संशोधन करते हुए लिखते थे। जैसे चौदहवीं सदी के इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने पहला ब्यौरा 1356 में लिखा था जिसे दो साल बाद उसने संशोधित किया था। 1960 के दशक तक इतिहासकारों को यह भी नहीं पता था कि उस ब्यौरे की मूल प्रति भी थी।