मुगल साम्राज्य
भारतीय उपमहाद्वीप एक विशाल भूभाग होने के अलावा सदियों से सांस्कृतिक और धार्मिक विविधताओं से भरा क्षेत्र रहा है। इसलिए मध्यकाल में भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन कर पाना बहुत कठिन काम था। मुगलों के पहले के कुछ राजवंशों ने यह काम किया था लेकिन उनका शासन बहुत कम समय के लिए चल पाया था। उसके विपरीत, मुगलों का शासन लगभग तीन सौ वर्षों तक रहा। इस लंबे समय के दौरान मुगल शासकों ने प्रशासन का जो ढ़ाँचा बनाया और शासन संबंधी जो विचार लागू किए उसका असर आज भी देखने को मिलता है। आज भी भारत के प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस के दिन जिस लालकिले पर झंडा फहराते हैं वह कभी मुगल बादशाह का निवास स्थान हुआ करता था।
मुगल कौन थे?
मुगल दो महान शासक वंशों के वंशज थे। माता की ओर से वे मंगोल शासक चंगेज खान के वंशज थे। पिता की ओर से वे तैमूर के वंशज थे। चंगेज खान चीन और मध्य एशिया के कुछ भागों पर राज करता था। तैमूर का शासन ईरान, इराक और आज के तुर्की पर था। चंगेज खान के नाम से ही उसके द्वारा किए गए भीषण नरसंहारों की याद आ जाती है। इसलिए मुगल अपने आप को मुगल या मंगोल कहलवाना पसंद नहीं करते थे। लेकिन तैमूर ने 1398 में दिल्ली पर कब्जा किया था। इसलिए मुगलों को तैमूर का वंशज होने पर गर्व था।
1494 में बाबर जब बारह वर्ष का था तो उसे फरघाना का उत्तराधिकार मिला। लेकिन मंगोलों की दूसरी शाखा (उजबेगों) के आक्रमण के कारण उसे अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। कई वर्षों तक भटकने के बाद उसने 1504 में काबुल पर कब्जा किया। उसके बाद 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में उसने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली और आगरा पर कब्जा किया। यहीं से भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल साम्राज्य की नींव पड़ी।
उत्तराधिकार की मुगल परंपराएँ
उत्तराधिकार की दो परंपराएँ हैं: ज्येष्ठाधिकार और सहदायाद। ज्येष्ठाधिकार के अनुसार सबसे बड़ा बेटा अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी होता था। सहदायाद के अनुसार सभी बेटों में उत्तराधिकार को बाँट दिया जाता था। यही परंपरा तैमूर वंश में भी चली आ रही थी। मुगल भी इसी परंपरा का पालन करते थे।
अन्य शासकों के साथ रिश्ते
जब मुगल शक्तिशाली हो गए तो कई अन्य राजाओं ने उनकी सत्ता स्वीकार कर ली। कई राजपूत राजाओं ने मुगल घराने में अपनी बेटियों का विवाह कर दिया ताकि ऊँचे पद प्राप्त कर सकें। लेकिन कई राजाओं ने इसका विरोध भी किया।
मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत मुगलों की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार करते रहे। जब मुगलों ने उन्हें परास्त किया तो उनके साथ इज्जत से पेश आए। मुगलों ने सिसोदिया राजपूत को उनकी जागीरें (वतन) लौटा दी, जिसे वतन जागीर का नाम दिया गया। इस तरह से मुगल किसी को पराजित तो करते थे लेकिन अपमानित नहीं करते थे। इस नीति के कारण मुगलों का प्रभाव बढ़ता चला गया। लेकिन औरंगजेब ने शिवाजी को अपमानित किया जिसका उसे बुरा परिणाम देखना पड़ा।
मनसबदार और जागीरदार
मुगल शासन के शुरुआती दिनों में उनके अधिकतर सरदार तुर्की (तूरानी) थे। लेकिन जब साम्राज्य का विस्तार हुआ तो शासक वर्ग में ईरानी, भारतीय मुसलमान, अफगान, राजपूत, मराठा, आदि समूह भी शामिल हो गए।
मुगल की सेवा में रहनेवाले नौकरशाहों को मनसबदार कहा जाने लगा। मनसब का मतलब होता है कोई सरकारी हैसियत या पद। किसी मनसबदार के पद, वेतन और सैन्य उत्तरदायित्व का निर्धारण उसकी जात की संख्या के आधार पर होता था। जात की अधिक संख्या का मतलब अधिक वेतन और अधिक इज्जत होती थी।
मनसबदार को अपनी सैन्य उत्तरदायित्व के अनुसार घुड़सवार रखने पड़ते थे। मनसबदार अपने सवारों को निरीक्षण के लिए लाता था, अपने सैनिकों के घोड़ों को दगवाता था और सैनिकों का पंजीकरण करवाता था। इन जरूरी कार्यवाहियों के बाद ही उसे सैनिकों को वेतन देने के लिए धन मिलता था।
मनसबदार को जमीन दी जाती थी जिससे वे लगान या राजस्व वसूलते थे और यही उसका वेतन होता था। इस भूमि को जागीर कहते थे जो दिल्ली सुलतान के काल के इक्ता जैसी थी। यहाँ पर एक अंतर था। दिल्ली सुलतान के समय में मुक्ती अपने इक्ताओं में रहते थे, लेकिन मुगल काल में मनसबदार अपनी जागीरों में नहीं रहते थे और न ही उस पर प्रशासन करते थे। मनसबदार का नौकर लगान वसूलता था और मनसबदार देश के किसी अन्य हिस्से में अपनी सेवा देता था।
अकबर के शासन के समय जागीरों का सावधानी से आकलन किया जाता था ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन के लगभग बराबर हो। औरंगजेब का शासन आते आते स्थिति बदल चुकी थी। अब जागीर से मिलने वाला राजस्व, मनसबदार के वेतन से बहुत कम था। मनसबदारों की संख्या पहले से बहुत ज्यादा हो चुकी थी। इसलिए जागीर मिलने से पहले उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ता था। अब कई जागीरदार, जागीर रहने पर यह कोशिश करते थे कि जितना हो सके राजस्व वसूल ले। इससे किसानों की मुसीबतें बढ़ गई थीं।