शासक और इमारतें
आठवीं और अठारहवीं शताब्दियों के बीच राजाओं और उनके अधिकारियों द्वारा दो तरह की इमारतों का निर्माण हुआ था।
- पहली तरह की इमारतें सुरक्षित और संरक्षित थीं। ये इमारतें इस दुनिया और दूसरी दुनिया में आराम फरमाने की भव्य जगहें थीं, जैसे किले, महल और मकबरे।
- दूसरी तरह की इमारतें जनता के उपयोग के लिए बनाई जाती थीं, जैसे मंदिर, मसजिद, हौज, कुँए, सराय और बाजार।
राजा से यह उम्मीद की जाती थी कि वह अपनी प्रजा की देखभाल करेगा। प्रजा की उम्मीदों पर खरा उतरने के खयाल से राजा ऐसी इमारतें बनवाते थे। व्यापारी और अन्य लोग भी इस तरह की इमारतें बनवाते थे। लेकिन यदि घरेलू स्थापत्य की बात की जाए तो उनके अवशेष अठारहवीं शताब्दी से ही मिलने शुरु हो जाते हैं, जैसे कि विशाल हवेलियाँ।
अभियांत्रिकी कौशल
एक छोटे घर की छत बनाने के लिए शहतीरों या पत्थर की पट्टियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन जब एक विशाल अधिरचना (सुपस्ट्रक्चर) बनाना हो शहतीरों से काम नहीं चलता है।
- अनुप्रस्थ टोडा निर्माण: इस शैली में दो खड़े खंभों के आर-पार एक शहतीर को लिटाकर रखा जाता है। फिर उस शहतीर के ऊपर छत, दरवाजे या खिड़कियाँ बनाई जाती हैं। आठवीं से तेरहवीं सदी के बीच बने भवनों में इसी शैली का प्रयोग हुआ था।
- चापकार: वास्तुशिल्प की इस शैली में दरवाजों और खिड़कियों के ऊपर की अधिरचना का भार मेहराबों (आर्च) पर डाला जाता है। बारहवीं शताब्दी में भारत में इस शैली के इस्तेमाल की शुरुआत हुई थी।
इस दौरान निर्माण कार्य में चूना-पत्थर और सीमेंट का प्रयोग बढ़ गया। सीमेंट में पत्थर के टुकड़ों को मिलाने से कंकरीट बनती थी। कंकरीट के इस्तेमाल से विशाल ढ़ाँचों का निर्माण तेज और सरल हो गया।
मंदिर, मसजिद और हौज
मंदिर और मसजिद उपासना के स्थल होते हैं। इसलिए इनका निर्माण बड़े सुंदर तरीके से किया जाता था। उपासना के ये स्थल अपने संरक्षक की शक्ति, धन-वैभव और भक्ति भाव का प्रदर्शन भी करते थे।
सभी विशाल मंदिर राजाओं द्वारा बनवाए गए थे। मंदिर के लघु देवता, शासक के सहयोगियों और अधीनस्थों के देवी-देवता थे। इस तरह से मंदिर, शासक और उसके सहयोगियों द्वारा बनाए गए संसार का एक लघु रूप बन जाता था।
राजा राजराजादेव ने राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था। राजा और भगवान, दोनों के नाम मिलते जुलते हैं। इसका मतलब यह है कि राजा को यह नाम शुभ लगता होगा और राजा अपने आपको भगवान के रूप में दिखाना चाहता होगा।
मुसलमान सुलतान और बादशाह खुद को भगवान के अवतार होने का दावा तो नहीं करते थे लेकिन फारसी दरबारी इतिहासों में सुलतान को अल्लाह की परछाई के रूप दिखाया गया है। दिल्ली की एक मसजिद के अभिलेख से यह मालूम होता है कि अल्लाह ने अलाउद्दीन को शासक के रूप में इसलिए चुना था क्योंकि उसमें मूसा और सुलेमान के गुण मौजूद थे। मूसा और सुलेमान अतीत के महान विधिकर्ताओं में गिने जाते हैं।
हर राजवंश का राजा सत्ता में आने पर अपने शासक होने के नैतिक अधिकार पर जोर डालना चाहता था। मंदिर या मसजिद को बनवाकर शासक यह दिखाने की कोशिश करता था कि ईश्वर के साथ उसके मजबूत संबंध हैं। विद्वानों और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को आश्रय दिया जाता था। राजधानियों और नगरों को महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र बनाने कोशिश होती थी। हौजों और जलाशयों का निर्माण होता था ताकि लोगों को बहुमूल्य पानी मिल सके। इन सब कामों से राजा के शासन को ख्याति मिलती थी।