शासक और इमारतें
मंदिरों पर आक्रमण
अब तक आप समझ चुके होंगे कि उपासना के स्थलों का निर्माण इसलिए किया जाता था ताकि राजा अपनि शक्ति, धन-संपदा और ईश्वर के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन कर सके। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब कोई राजा किसी दूसरे राज्य पर आक्रमण करता था तो अक्सर ऐसी इमारतों को निशाना बनाया जाता था। मंदिरों से कीमती मूर्तियाँ और अन्य धन-संपदा को लूट लिया जाता था।
नवीं शताब्दी की शुरुआत में जब पांड्यन राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण करके राजा सेन प्रथम (831-851) को हराया तो वहाँ के मठों से सोने की मूर्तियों को लूटकर ले गया। उसके बाद सिंहल के राजा सेन द्वितीय ने पांड्यों की राजधानी मदुरई पर आक्रमण करने का आदेश दिया ताकि पुराने अपमान का बदला ले सके।
गजनी के सुलतान महमूद ने भारत में अपने अभियानों के दौरान पराजित राजाओं के मंदिरों को तहस नहस किया और उनके धन और मूर्तियों को लूट लिया। गुजरात का सोमनाथ का मंदिर उन्हीं मंदिरों में से एक है।
बाग, मकबरे और किले
मुगलों के समय वास्तुकला और भी जटिल हो गई। मुगल सम्राटों की साहित्य, कला और वास्तुकला में व्यक्तिगत रुचि थी। मुगल के समय बनने वाले औपचारिक बागों को चार बराबर भागों में बाँटा जाता था। इसलिए इन्हें चारबाग कहते हैं। आगरा, दिल्ली और कश्मीर के चारबाग आज भी मशहूर हैं।
अकबर के शासनकाल में वास्तुकला के क्षेत्र में कई नई तकनीकों की शुरुआत हुई। अकबर के वास्तुशिल्पियों ने उसके पूर्वज तैमूर के मकबरों से प्रेरणा ली थी। हुमायूँ के मकबरे में सबसे पहली बार केंद्रीय गुंबद और ऊँचा मेहराबदार प्रवेशद्वार (पिश्तक) का इस्तेमाल हुआ। हुमायूँ का मकबरा एक विशाल चारबाग के बीच में बना है। इसका निर्माण आठ स्वर्गों या हश्त बिहिश्त की परंपरा से हुआ था। इसमें एक केंद्रीय कक्ष, आठ कमरों से घिरा हुआ है। इमारत लाल बलुआ पत्थरों से बनी है और इसके किनारे सफेद संगमरमर से बने हैं।
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल वास्तुकला अपने चरम शिखर पर पहुँच चुकी थी। आगरे का ताजमहल इसका बेमिसाल नमूना है। आगरा और दिल्ली में सार्वजनिक और व्यक्तिगत सभा के लिए समारोह कक्ष बनाए गए थे जिन्हें दीवान-ए-खास और दीवान-ए-आम कहा जाता था। इन्हें चिहिल सुतुन या चालीस खंभों वाला सभा भवन भी कहते थे।
शाहजहाँ के सभा भवन को मसजिद से मिलता-जुलता बनाया गया था। उसका सिंहासन जिस मंच पर बना था उसे अक्सर किबला कहा जाता है। जिस समय दरबार चलता था उस समय हर कोई सिंहासन की ओर मुँह करके बैठता था। जब मुसलमान नमाज पढ़ते हैं तो उनके सामने की दिशा को किबला कहते हैं। भारत में यह पश्चिम की ओर होता है क्योंकि मक्का यहाँ से पश्चिम में स्थित है।
शाहजहाँ के सिंहासन के पीछे पितरा-दूरा के जड़ाऊ काम की पूरी श्रृंखला बनी थी। उसमें पौराणिक यूनानी देवता ऑर्फियस को वीणा बजाते हुए दिखाया गया था। ऐसा माना जाता था कि ऑर्फियस का संगीत सुनकर आक्रामक जानवर भी शांत हो जाता है।
शासन के शुरु के वर्षों में शाहजहाँ की राजधानी आगरा थी। उस समय विशिष्ट वर्गों के घर यमुना नदी के किनारे पर बने थे। चारबाग की योजना के तहत ही अन्य तरह के बाग बने थे जिन्हें इतिहासकार नदी-तट-बाग कहते हैं। इस तरह के बाग में निवासस्थान, चारबाग के बीच में न होकर नदी तटों के पास बाग के बिलकुल किनारे पर होता था।
शाहजहाँबाद
बाद में दिल्ली में शाहजहाँनाबाद बनाया गया। इस नये शहर में शाही महल को नदी के किनारे बनवाया गया। केवल विशिष्ट अभिजातों को ही नदी तक पहुँच मिली थी। बाकी लोगों को अपने घर यमुना नदी के तट से दूर, शहर में करवाना पड़ा था।
क्षेत्र और साम्राज्य
आठवीं और अठारहवीं सदी में विभिन्न क्षेत्रों के बीच विचारों का पर्याप्त आदान प्रदान भी हुआ। इसके परिणामस्वरूप एक क्षेत्र की परंपराएँ दूसरे क्षेत्र में अपनाई गईं। इसके कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। विजयनगर में राजाओं की गजशालाओं पर बीजापुर और गोलकुंडा की वास्तुकला शैली का प्रभाव देखने को मिलता है। वृंदावन के मंदिरों पर फतेहपुर सीकरी के मुगल महलों की वास्तुशैली का प्रभाव दिखता है। बंगाल में छप्पर की झोंपड़ी जैसी दिखने वाली छत बहुत लोकप्रिय थी। इसे बंग्ला गुंबद कहते हैं। फतेहपुर सीकरी में बंग्ला गुंबद की झलक दिखती है। यहाँ की इमारतों पर गुजरात और मालवा की वास्तुशिल्प का प्रभाव भी दिखता है।