औरतों ने बदली दुनिया
महिलाओं को पुरुषों के समान काम के अवसर नहीं मिलते हैं। परिवार और समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए महिलाओं को कई बलिदान देने पड़ते हैं। कई नौकरियों के लिए तो महिलाओं को बिलकुल अयोग्य माना जाता है, जैसे कि पायलट, सैनिक, ट्रेन ड्राइवर, आदि।
अवसरों की कमी और अपेक्षाओं की विवशता
यदि आपको किसी नर्स, वैज्ञानिक और एक टीचर की तस्वीर बनाने को कहा जाए तो अधिकतर मामलों में नर्स और टीचर की तस्वीर किसी महिला की होगी, जबकि वैज्ञानिक कोई पुरुष होगा। ऐसा इसलिए होता है कि आमतौर पर हम यही देखते हैं। हर काम के लिए व्यक्ति में कुछ जरूरी खूबियों की तलाश होती है। ऐसा माना जाता है कि संवेदनशील और सहनशील होने के कारण नर्स के काम के लिए महिला ही उपयुक्त होती है। एक वैज्ञानिक बनने के लिए बहुत मेधावी व्यक्ति की जरूरत होती है और लोग मानते हैं कि पुरुष ही मेधावी हो सकते हैं। परिवार और समाज में लड़कियाँ और महिलाएँ जो भूमिका निभाती हैं, शायद उनके कारण भी इस तरह की धारणाएँ बन जाती हैं। अधिकतर परिवारों में स्कूल के तुरंत बाद लड़कियों का ब्याह कर दिया जाता है।
जिस समाज में हम रहते हैं उसमें बच्चों पर उनके इर्द गिर्द रहने वाले लोगों से तरह तरह के दबाव पड़ते हैं। ऐसे लोग हमारे परिवार के वयस्क हो सकते हैं या फिर हमउम्र बच्चे। उदाहरण के लिए, यदि कोई लड़का सबके सामने रोने लगता है तो इसे अच्छा नहीं माना जाता है। लड़कों पर शुरु से ही इस बात का दबाव रहता है कि वे जल्द से जल्द कमाना शुरु कर दें। इस चक्कर में कई लड़के अपनी सही रुचि और प्रतिभा को नहीं निखार पाते हैं। हो सकता है कि कोई चित्रकार बनना चाहता हो या कोई संगीतकार। लेकिन अधिकतर लड़के इंजीनियर या फिर प्राशासनिक अधिकारी बन कर रह जाते हैं।
बदलाव की कोशिश
स्कूल जाना हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब आपके आस पास रहने वाले अधिकतर बच्चे स्कूल जा रहे हों तो यह एक तरह से नैसर्गिक लगने लगता है। लेकिन पुराने जमाने में बहुत कम ही लोग लिखना पढ़ना जानते थे। महिलाओं को शिक्षित करने के बारे में बड़ी भ्रांतियाँ फैली हुई थीं। आज से कोई सौ वर्ष पहले यह माना जाता था कि शिक्षित महिला अपने पति के लिए दुर्भाग्य लेकर आती है और वह जल्दी ही विधवा हो जाती है।
बच्चे अक्सर वही काम सीखते थे जिनमें उनका परिवार माहिर था। उसमें भी लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव किया जाता था। जिन परिवारों में लड़कों को पढ़ना लिखना सिखाया जाता था, लड़कियों को अक्षर ज्ञान से कोसों दूर रखा जाता था। जिन परिवारों में बरतन बनाने, बुनाई या हस्तकला सिखाई जाती थी वहाँ भी महिलाओं की भूमिका केवल परदे के पीछे वाली होती थी। किसी कुम्हार के घर में औरतों की जिम्मेदारी मिट्टी लाने और उसे गूंधने तक ही सीमित होती थी। चाक चलाने का काम पुरुष ही करते थे। इसलिए महिलाओं को कुम्हार माना ही नहीं जाता था।
उन्नीसवीं सदी में शिक्षा के क्षेत्र में कई नये विचार आने लगे। स्कूलों की संख्या बढ़ने लगी। कई लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। लेकिन अधिकतर लोग लड़कियों को स्कूल भेजने के खिलाफ थे। कई पुरुषों और महिलाओं के अथक प्रयास के बाद लड़कियों के लिए स्कूल खुलने लगे। कई महिलाओं को पढ़ना लिखना सीखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा।
टूटती धारणाएँ
लक्ष्मी लाकरा
झारखंड के एक गाँव की लक्ष्मी लाकरा ने पुरानी मान्यताओं को तोड़ते हुए उत्तरी रेलवे में पहली महिला बनीं जिसने रेल इंजन चलाना शुरु किया। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इंजन ड्राइवर की बात आते ही हमारे मन में किसी पुरुष की तस्वीर बनती है।
रमाबाई (1858-1922)
रमाबाई ने महिला शिक्षा के लिए बहुत काम किया। उन्हें पंडिता की उपाधि से नवाजा गया, क्योंकि वह संस्कृत भाषा पढ़ना और लिखना जानती थीं। रमाबाई कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन उन्होंने अपने माता पिता से पढ़ना लिखना सीखा था। उन्होंने पुणे के पास 1898 में एक मिशन (जो आज भी काम करता है) शुरु किया जहाँ गरीब और विधवा महिलाओं को साक्षर और स्वतंत्र बनाने के लिए बढ़ावा दिया जाता था।
राससुंदरी देवी (1800-1890)
राससुंदरी देवी ने बांग्ला में अपनी आत्मकथा, आमार जीबोन लिखी थी जो भारतीय महिला द्वारा लिखी पहली आत्मकथा है। वह अपने पति और बेटे की किताबों से पन्ने चुरा लिया करती थी। फिर उन पन्नों की सहायता से उन्होंने पढ़ना लिखना सीखा। अपने लेखन से उन्होंने अपने समय की महिलाओं के जीवन के बारे में लोगों को रूबरू कराया।
रुकैया सखावत हुसैन
इन्हें उर्दू लिखना पढ़ना तो आता था लेकिन बांग्ला और अंग्रेजी सीखने की मनाही थी। अपने भाइयों और बहनों की मदद से इन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी सीखी। रुकैया सखावत हुसैन ने 1905 में सुल्ताना का स्वप्न नाम से एक कमाल की कहानी लिखी। 1910 में उन्होंने कोलकाता में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला जहाँ आज भी पढ़ाई जारी है।