नगर, मंदिर, शिल्पीजन
हम्पी का स्थापत्य
कृष्णा-तुंगभद्रा की घाटियों में स्थित हम्पी, 1336 में स्थापित विजयनगर साम्राज्य का केंद्र था। यहाँ के शानदार खंडहरों से पता चलता है कि यह एक शानदार नगर था जो एक किले से घिरा हुआ था। दीवारों के निर्माण के लिए पत्थर की सिल्लियों को इस तरह से रखा जाता था कि वे एक दूसरे से फँस जाते थे। इसमें गारे या कंकरीट का इस्तेमाल जरा भी नहीं हुआ था।
शाही प्रांगण के भवनों के शानदार गुम्बद और मेहराबें थीं। खंभों के सहारे बड़े-बड़े सभागार बने थे जिनमें मूर्तियों के लिए ताखे बने थे। बगीचों को सटीक योजना के अनुसार बनाया गया था और उनमें कमल और टोडे की आकृति की मूर्तियाँ थीं। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में यह शहर व्यावसायिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से व्यस्त रहता था।
हम्पी के बाजारों में मुसलिम सौदागरों (मूर), चेट्टियों और यूरोपीय व्यापारियों (जैसे पुर्तगालियों) का जमघट लगा रहता था।
इस शहर में मंदिर सभी तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र होता था। देवदासियाँ (मंदिर की नर्तकी) विरुपक्ष मंदिर में भगवान के सामने नृत्य करती थीं, जिसका आनंद राजा और प्रजा दोनों ही लेते थे। महानवमी एक मुख्य त्योहार था। आजकल इसे नवरात्रि के नाम से जानते हैं।
हम्पी का पतन
1565 में विजयनगर की पराजय के बाद यह शहर धीरे धीरे खंडहर बन गया। दक्कन के सुलतानों (गोलकुंडा, अहमदनगर, बेरार, बिदर और बीजापुर के शासक) ने विजयनगर के राजा को हराया था।
पश्चिम का द्वार सूरत
सूरत, खंबात (मुगल काल में) और बाद में अहमदाबाद पश्चिम से व्यापार का मुख्य केंद्र था। सूरत से ओरमुज की खाड़ी से होकर पश्चिमी एशिया का व्यापार होता था। यहाँ हज के लिए तीर्थयात्रियों के जहाज रवाना होने के कारण इसे मक्का का गेट भी कहते थे।
यह एक सर्वदेशीय नगर था, यानि हर जाति और समुदाय के लोग यहाँ रहते थे। सत्रहवीं सदी में पुर्तगालियों, डच और अंग्रेजों ने यहाँ अपने गोदाम बनाए थे।
सूरत में सूती कपड़े की कई खुदरा और थोक दुकानें थीं। सूरत का कपड़ा, जरी (सोने के धागों से बनी डिजाइन) के लिए मशहूर था। इस कपड़े की पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप में अच्छी मांग थी। सरकार ने दूर देश से आए लोगों की सुविधा के लिए कई विश्रामगृह बनवाए थे। यहाँ कई आलीशान भवन और पार्क भी बने थे। काठियावाड़ सेठ और महाजन बड़े बड़े बैंक चलाते थे। सूरत की हुंडी दूर दराज के बाजारों में चलती थी, जैसे काहिरा (मिस्र), बसरा (इराक) और एंटवर्प (बेलियम)। हुंडी एक परिष्कृत सिस्टम है जिसके द्वारा रुपये पैसे का ट्रांसफर एक जगह से दूसरी जगह किया जाता था।
सूरत का पतन
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद सूरत का बाजार सिमटने लगा था। फिर पुर्तगालियों ने समुद्री मार्ग पर कब्जा कर लिया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1668 में अपना मुख्यालय बम्बई शिफ्ट कर लिया। इन कारणों से सत्रहवीं शताब्दी में सूरत का पतन हो गया।
मसूलीपटनम
मसूलीपटनम या मछलीपटनम नगर कृष्णा नदी के डेल्टा पर स्थित है। सत्रहवीं शताब्दी में यह कई गतिविधियों का केंद्र था। जल्दी ही यह आन्ध्र प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह बन गया था। इसलिए डच और इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस पर नियंत्रण करने की कोशिश की। मछलीपटनम के पत्तन का निर्माण डच ने करवाया था।
गोलकुंडा के कुतुबशाही शासकों ने यहाँ कपड़ा, मसाले और अन्य चीजों के व्यापार पर शाही एकाधिकार लगा रखा था। ऐसा इसलिए किया गया था कि विभिन्न ईस्ट इंडिया कम्पनियों के हाथ में व्यापार का नियंत्रण न हो जाए। उस समय व्यापार के लिए कई समूहों में कड़ी प्रतिस्पर्द्धा चलती थी, जैसे गोलकुंडा का कुलीन वर्ग, फारसी व्यापारी, तेलुगु कोमटी चेट्टियार और यूरोपीय व्यापारी। इस प्रतिस्पर्द्धा के कारण यह शहर घनी आबादी वाला और संपन्न बन गया।
जब मुगलों ने गोलकुंडा की तरफ पैर पसारने शुरु किए तो गोलकुंडा का सूबेदार, मीर जुमला, डच और अंग्रेजों को एक दूसरे के खिलाफ लड़ाना शुरु किया। मीर जुमला, मुगलों का प्रतिनिधि होने के साथ साथ एक व्यापारी भी था। 1686-876 में औरंगजेब ने गोलकुंडा को अपने कब्जे में ले लिया।
मसूलीपटनम का पतन
जब मुगलों ने मसूलीपटनम पर कब्जा कर लिया तो यूरोप की कम्पनियाँ विकल्प की तलाश में लग गईं। ईस्ट इंडिया कम्पनी की नई नीति कहती थी कि किसी पत्तन के लिए उत्पादन केंद्रों से सम्पर्क ही काफी नहीं था। ऐसी सोच बनने लगी कि कम्पनी को ऐसी जगह ध्यान देना चाहिए जहाँ राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यावसायिक भूमिकाओं का संगम हो। जब कम्पनियाँ बम्बई, कलकत्ता और मद्रास शिफ्ट कर गईं तो मसूलीपटनम के व्यापारी और वहाँ की संपन्नता समाप्त हो गई।