उपन्यास समाज और इतिहास
उपनिवेशी दुनिया में उपन्यास
उपन्यास की सार्थकता: कई उपनिवेशी प्रशासकों के लिये उपन्यास एक ऐसा माध्यम था जिससे भारत के सामाजिक ढ़ाँचे और जनजीवन के बारे में आसानी से समझा जा सकता था। उपन्यासों के माध्यम से वे भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को समझ पाते थे। अंग्रेजी अफसरों या ईसाई प्रचारकों ने कई उपन्यासों को अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
कई उपन्यासों में सामाजित कुरीतियों और उनके उपचार के बारे में बताया गया था। कई उपन्यासों में इतिहास की बातें की गई थीं ताकि लोग अपने भूतकाल को बेहतर ढ़ंग से समझ सकें।
जीवन के हर क्षेत्र के लोग उपन्यास पढ़ सकते थे। इससे किसी की भाषा के आधार पर लोगों में साझा पहचान की भावना घर करने लगी। उपन्यास से लोगों को देश के दूसरे हिस्सों की संस्कृति को समझने का मौका भी मिला।
पढ़ने का आनंद
मध्य वर्ग में उपन्यास मनोरंजन का एक लोकप्रिय साधन बन गया। जासूसी और रहस्य से भरपूर उपन्यासों कई रिप्रिंट बनाने पड़ते थे ताकि लोगों की माँग पूरी की जा सके। कई उपन्यास तो बीस से बाईस बार तक रिप्रिंट हुए होंगे।
उन्नीसवीं सदी तक या फिर बीसवीं सदी के शुरुआत तक लोग अक्सर अन्य लोगों को ध्यान में रखकर जोर जोर से पढ़ा करते थे। लेकिन धीरे धीरे लोग मन ही मन पढ़ने की आदत डालने लगे। इस तरह से लोगों में मन ही मन पढ़ने का प्रचलन शुरु हुआ जिसमें उपन्यासों की बड़ी भूमिका थी।
महिलाएँ और उपन्यास
कई लोग ऐसा मानते थे कि उपन्यास से लोगों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है। इसलिये महिलाओं और बच्चों को अक्सर उपन्यास पढ़ने से रोका जाता था। कई लोग उपन्यास को छुपा कर रखते थे ताकि वे बच्चों के हाथों में न पड़ जाएँ। युवाओं को उपन्यास छुपकर पढ़ना पड़ता था। बूढ़ी औरतें अपने नाती पोतों की मदद से उपन्यास को सुनने का मजा लेती थीं।
लेकिन कई महिलाएँ लेखिका बन गईं और कहानी, कविता, निबंध और आत्मकथा तक लिखने लगीं। बीसवीं सदी के शुरु के दशकों में भारत की महिलाओं ने उपन्यास और लघु कहानियाँ भी लिखना शुरु कर दिया। कई महिलाओं को छुपाकर लिखना पड़ता था क्योंकि समाज इसकी अनुमति नहीं देता था।
जाति प्रथा
कई लेखकों ने अपने उपन्यासों में नीची जाति के लोगों की दुर्दशा के बारे में लिखा। कई उपन्यासों में ऊँची और नीची जाति के लड़के लड़की की शादी से उत्पन्न होने वाले सामाजिक टकराव को दर्शाया गया। नीची जाति के कुछ लोग भी मशहूर लेखक बन गये; जैसे केरल के पोथेरी कुंजाम्बु। इस तरह से उपन्यासों के माध्यम से कई समुदायों को साहित्य के परिदृश्य पर जगह मिल पाई।
राष्ट्र और उसका इतिहास
बंगाल में मराठा और राजपूतों पर कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गये। इन उपन्यासों में राष्ट्र को बहादुरी, रोमांच और बलिदान की भूमि के रूप में चित्रित किया गया। इन उपन्यासों ने गुलामी में जकड़ी जनता को ऐसा रास्ता दिखाया कि वह अपने आजादी के लक्ष्य के बारे में सोच सके। भूदेव मुखोपाध्याय के उपन्यास अंगुरिया बिनिमोय (1857) में औरंगजेब के खिलाफ शिवाजी के बहादुरी के किस्से हैं।
बंकिमचंद की आनंदमठ (1882) में एक गुप्त हिंदू सैन्य संगठन की कहानी है जो मुसलमानों से लड़कर एक हिंदू साम्राज्य की स्थापना करता है।
इनमें से कई उपन्यास से ये भी पता चलता है कि राष्ट्र के बारे में सोच में कितनी खामियाँ हो सकती हैं। हम जानते हैं कि भारत किसी एक खास धार्मिक समुदाय का राष्ट्र नहीं हो सकता है।