औद्योगीकरण का युग
भारत में कारखानों की शुरुआत
बम्बई में पहला सूती कपड़ा मिल 1854 में बना और उसमें उत्पादन दो वर्षों के बाद शुरु हो गया। 1862 तक चार मिल चालू हो गये थे। उसी दौरान बंगाल में जूट मिल भी खुल गये। कानपुर में 1860 के दशक में एल्गिन मिल की शुरुआत हुई। अहमदाबाद में भी इसी अवधि में पहला सूती मिल चालू हुआ। मद्रास के पहले सूती मिल में 1874 में उत्पादन शुरु हो चुका था।
शुरु के व्यवसायी
भारत के कई बिजनेस ग्रुप के इतिहास में चीन के साथ होने वाला व्यापार छुपा हुआ है। अठारहवीं सदी के आखिर से ब्रिटिश भारत ने अफीम का निर्यात चीन को करना शुरु किया और वहाँ से चाय का आयात करना शुरु किया। इस काम में कई भारतीय व्यापारियों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। वे पूँजी लगाते थे, माल मंगवाते थे और फिर माल को भेजते थे। जब उन व्यापारियों ने अच्छी पूँजी जमा कर ली तो वे भारत में औद्योगिक उपक्रम बनाने के सपने भी देखने लगे।
ऐसे लोगों में द्वारकानाथ टैगोर एक अग्रणी व्यक्ति थे जिन्होंने 1830 और 1840 के दशक में उद्योग लगाने शुरु किये। टैगोर का उद्योग 1840 के व्यापार संकट के दौर में तबाह हो गया। लेकिन उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में कई व्यापारी सफल उद्योगपति हो गये। बम्बई में दिनशॉ पेटिट और जमशेदजी नसेरवनजी टाटा जैसे पारसी लोगों ने बड़े बड़े उद्योग स्थापित किये। कलकत्ता में पहला जूट मिल 1917 में एक मारवाड़ी उद्यमी सेठ हुकुमचंद द्वारा खोला गया था। इसी तरह से चीन से सफल व्यापार करने वालों ने बिड़ला ग्रुप को बनाया था।
बर्मा, खाड़ी देशों और अफ्रिका के व्यापार नेटवर्क के रास्ते भी पूँजी जमा की गई थी।
भारत के व्यवसाय पर अंग्रेजों का ऐसा शिकंजा था कि उसमें भारतीय व्यापारियों को बढ़ने के लिए अवसर ही नहीं थे। पहले विश्व युद्ध तक भारतीय उद्योग के के अधिकतम हिस्से पर यूरोप की एजेंसियों की पकड़ हुआ करती थी।
मजदूर कहाँ से आते थे?
ज्यादातर औद्योगिक क्षेत्रों में आस पास के जिलों से मजदूर आते थे। इनमें से अधिकांश मजदूर आस पास के गाँवों से पलायन करके आये थे। फसल की कटाई और त्योहारों के समय वे अपने गाँव भी जाते थे ताकि अपनी जड़ों से भी जुड़े रहें। ऐसा आज भी देखने को मिलता है। दिल्ली और पंजाब में काम करने वाले मजदूर छुट्टियों में बिहार और उत्तर प्रदेश वापस जाते हैं।
कुछ समय बीतने के बाद, लोग काम की तलाश में अधिक दूरी तक भी जाने लगे। उदाहरण के लिए यूनाइटेड प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) के लोग भी बम्बई और कलकत्ता की तरफ पलायन करने लगे।
लेकिन काम मिलना आसान नहीं होता था। उद्योगपति अक्सर लोगों को काम पर रखने के लिए जॉबर की मदद लेते थे जो किसी प्लेसमेंट कंसल्टेंट की तरह काम करता था। अक्सर कोई पुराना और भरोसेमंद मजदूर जॉबर बन जाता था। जॉबर अक्सर अपने गाँव के लोगों को प्रश्रय देता था। वह उन्हें शहर में बसने में मदद करता था और जरूरत के समय कर्ज भी देता था। इस तरह से जॉबर एक प्रभावशाली व्यक्ति बन गया था। वह लोगों से बदले में पैसे और उपहार माँगता था और मजदूरों के जीवन में भी दखल देता था।