औद्योगीकरण का युग
औद्योगिक परिवर्तन की गति
औद्योगीकरण रातोंरात नहीं हुआ बल्कि इसकी रफ्तार धीमी थी। 1840 के दशक तक सूती कपड़ा उद्योग सबसे आगे था। 1840 के दशक में इंग्लैंड में रेलवे का प्रसार हुआ और फिर 1860 के दशक में उपनिवेशों में ऐसा हुआ। रेलवे के प्रसार के कारण लोहा इस्पात उद्योग में तेजी आ गई। 1873 आते आते ब्रिटेन से लोहा और इस्पात के निर्यात की कीमत 77 मिलियन पाउंड हो गई। यह सूती कपड़े के निर्यात का दोगुना था।
किन औद्योगीकरण का रोजगार पर खास असर नहीं पड़ा था। उन्नीसवीं सदी के अंत तक श्रमिकों की कुल संख्या का 20% से भी कम तकनीकी रूप से उन्नत औद्योगिक क्षेत्रक में नियोजित था। इसका मतलब यह है कि अभी भी पारंपरिक उद्योगों का वर्चस्व था और नये उद्योग पीछे चल रहे थे।
सूती कपड़ा और धातु उद्योग पारंपरिक उद्योगों में बदलाव नहीं ला पाये। लेकिन पारंपरिक उद्योगों में भी कई परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन बड़े ही साधारण से दिखने वाले लेकिन नई खोजों के कारण हुए। इस तरह के उद्योगों के उदाहरण हैं; खाद्य संसाधन, भवन निर्माण, बर्तन निर्माण, काँच, चमड़ा उद्योग, फर्नीचर, आदि।
जैसा कि आज भी हम देखते हैं, नई तकनीकों को पैर जमाने में काफी वक्त लगा। मशीनें महंगी होती थीं और उनकी मरम्मत में भी काफी खर्च लगता था। इसलिये व्यापारी और उद्योगपति नई मशीनों से दूर ही रहना पसंद करते थे। आविष्कारकों या निर्माताओं के दावों के विपरीत नई मशीनें बहुत कुशल भी नहीं थीं।
इतिहासकार इस बात को मानते हैं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य का एक आम श्रमिक कोई मशीन चलाने वाला नहीं बल्कि एक पारंपरिक कारीगर या श्रमिक होता था।
मानव शक्ति और भाप की शक्ति: उस जमाने में श्रमिकों की कोई कमी नहीं होती थी। इसलिये श्रमिकों की किल्लत या अधिक पारिश्रमिक की कोई समस्या नहीं थी। इसलिये महंगी मशीनों में पूँजी लगाने की अपेक्षा श्रमिकों से काम लेना ही बेहतर समझा जाता था।
मशीन से बनी चीजें एक ही जैसी होती थीं। वे हाथ से बनी चीजों की गुणवत्ता और सुंदरता का मुकाबला नहीं कर सकती थीं। उच्च वर्ग के लोग हाथ से बनी हुई चीजों को अधिक पसंद करते थे।
लेकिन उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में स्थिति कुछ अलग थी। वहाँ पर श्रमिकों की कमी होने के कारण मशीनीकरण ही एकमात्र रास्ता बचा था।
श्रमिकों का जीवन
काम की तलाश में भारी संख्या में लोग गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे थे। नौकरी मिलना इस बात पर निर्भर नहीं करता था कि किसी को क्या काम आता है। यह इस बात पर निर्भर करता था कि किसी के कितने अधिक दोस्त या रिश्तेदार पहले से ही वहाँ काम पर लगे हैं। जान पहचान के बगैर नौकरी मिलना बहुत मुश्किल होता था। किसी किसी को महीनों तक नौकरी पाने का इंतजार करना होता था। ऐसे लोग बेघर होते थे जिन्हें पुलों या रैन बसेरों में अपनी रातें बितानी पड़ती थी। कई निजी लोगों ने भी रैन बसेरे बनवाये थे। गरीबों के लिए बनी पूअर लॉ अथॉरिटी ऐसे लोगों के लिए कैजुअल वार्ड की व्यवस्था करती थी।
कई नौकरियाँ साल के कुछ गिने चुने महीनों में ही मिलती थीं। जाड़े के महीनों में शराब उद्योग में और जहाज के मरम्मत के क्षेत्र में बहुत रोजगार मिलते थे। जैसे ही वे व्यस्त महीने समाप्त हो जाते थे तो बेचारे गरीब फिर से सड़क पर आ जाते थे। उनमें से कुछ तो अपने गाँव लौट जाते थे लेकिन ज्यादातर शहर में ही रुक जाते थे ताकि छोटे मोटे काम पा सकें।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में पारिश्रमिक में थोड़ा सा इजाफा हुआ था। लेकिन विभिन्न क्षेत्रकों के आँकड़े प्राप्त करना मुश्किल है क्योंकि उनमें हर साल काफी उतार चढ़ाव होता था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक अच्छे दौर में भी शहरों की आबादी का लगभग 10% अत्यधिक गरीब हुआ करता था। आर्थिक मंदी के दौर में बेरोजगारी बढ़कर 35 से 75% के बीच हो जाती थी।
कई बार बेरोजगारी के डर से श्रमिक लोग नई तकनीक का जमकर विरोध करते थे। उदाहरण के लिए जब स्पिनिंग जेनी को लाया गया तो महिलाओं ने इन नई मशीनों को तोड़ना शुरु किया। उन महिलाओं को अपना रोजगार छिन जाने का डर था। ऐसी मानसिकता आज भी देखने को मिलती है। जब दफ्तरों और बैंकों में कंप्यूटराइजेशन की शुरुआत हुई थी तो लोगों ने इसका जमकर विरोध किया था क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी छिन जाने का डर था।
1840 के दशक के बाद शहरों में भवन निर्माण में तेजी आई। इससे रोजगार के नये अवसर पैदा हुए। 1840 में यातायात के क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या दोगुनी हो गई जो आने वाले तीस वर्षों में फिर से दोगुनी हो गई।