7 इतिहास

नये राजा और राज्य

चोल राजवंश

कावेरी डेल्टा के इलाके में मुट्टरियार नाम के एक छोटे मुखिया परिवार का शासन था। ये लोग कांचीपुरम के पल्लव राजाओं के अधीन हुआ करते थे। नौवीं सदी के मध्य में उरैयूर के प्राचीन मुखिया परिवार चोल के विजयालय ने मुट्टरियार को हराकर अपना शासन शुरु किया था। उसके बाद विजयालय ने तंजावूर शहर को बनाया और वहाँ निशुम्भसूदिनी देवी का मंदिर बनवाया।

विजयालय के बाद के राजाओं ने आस पास के इलाकों पर जीत हासिल करके राज्य का विस्तार किया। दक्षिण में पान्ड्यन और उत्तर में पल्लव के इलाके भी चोल साम्राज्य के अधीन आ गये।

राजराजा प्रथम

चोल शासकों में राजराजा प्रथम को सबसे शक्तिशाली माना जाता था। वह 985 ईसवी में राजा बना और ऊपर बताए गए अधिकतर इलाकों पर अपना कब्जा जमा लिया। उसने अपने साम्राज्य के प्रशासन में कई बदलाव किए। उसका बेटा राजेंद्र प्रथम अपने पिता की नीतियों का पालन करता था। राजेंद्र प्रथम ने गंगा की घाटी, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों पर भी आक्रमण किया। इन अभियानों के लिए उसने एक नौसेना भी विकसित कर ली थी।

भव्य मंदिर

राजराजा और राजेंद्र द्वारा तंजावूर और गंगईकोंडचोलपुरम में बनाए भव्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला की अनूठी मिसाल हैं। चोल राजाओं के समय मंदिर के आसपास बस्तियाँ फलती फूलती थीं। मंदिरों के लिए शासकों और अन्य लोगों द्वारा जमीन दान में दी जाती थी। मंदिरों में काम करने वाले लोग मंदिर के आस पास ही बस जाते थे, जैसे पुजारी, माला बनाने वाले, रसोइया, मेहतर, गीतकार, नर्तक, आदि। अनुदान में मिलने वाली जमीन की उपज से इनका गुजारा हो जाता था। पूजा का स्थान होने के साथ साथ मंदिर तरह तरह की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बन जाता था।

कांस्य मूर्तिकला

इन मंदिरों की खासियत है यहाँ पर बनने वाली कांसे की मूर्तियाँ। ये मूर्तियाँ पूरी दुनिया में बेहतरीन होती थीं। अधिकतर मूर्तियाँ देवी-देवताओं की बनती थीं, लेकिन कुछ भक्तों की मूर्तियाँ भी बनी थीं।

कृषि

कावेरी नदी के डेल्टा की जमीन बहुत उपजाऊ होती है। तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर खेती पाँचवीं और छठी शताब्दी में ही जाकर शुरु हुई थी। बाढ़ की रोकथाम के लिए यहाँ बाँध बनाए गए और खेतों तक पानी ले जाने के लिए नहर बनवाए गए। अधिकतर इलाकों में एक वर्ष में दो फसल उगाई जाती थी।

सिंचाई

जहाँ भी जरूरत थी, वहाँ कृत्रिम रूप से सिंचाई के लिए कई तरीके अपनाए गए, जैसे कुँआ खुदवाना या फिर वर्षा के पानी को जमा करने के लोए तालाब बनाना। अधिकतर राजाओं और ग्रामीणों ने सिंचाई की सुविधा विकसित करने में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था।

प्रशासन

सिंचाई की सुविधा विकसित होने से किसानों की बस्तियाँ संपन्न होने लगीं। इन बस्तियों या गाँवों को उर कहते हैं। ऐसे कई गाँवों के समूह को नाडु कहते हैं। गाँव की काउंसिल और नाडु कई काम करते थे, जैसे गाँव का प्रशासन, न्याय देना और कर वसूलना।

नाडु के मामलों पर वेल्लल जाति के धनी किसानों का अधिक नियंत्रण होता था। लेकिन ये लोग चोल राजाओं की निगरानी में काम करते थे। चोल राजाओं द्वारा बड़े भूस्वामियों को कई उपाधियाँ दी जाती थीं। मुवेंदवेलन का मतलब होता था तीन राजाओं को सेवा प्रदान करने वाला वेलन या किसान। अरइयार का मतलब है प्रधान।

जमीन का वर्गीकरण

चोल अभिलेखों में जमीन के कई प्रकारों के बारे में लिखा हुआ है। ब्राह्मणों को मिलने वाली जमीन को ब्रह्मदेय कहा जाता था। गैर-ब्राह्मणों की जमीन का नाम था वेल्लनवगाई। स्कूल के रखरखाव के लिए जमीन का नाम्था शालाभोग। मंदिर की जमीन को देवदान या तिरुनमटुक्कनी कहा जाता था। जैन संस्थाओं की जमीन को पल्लीच्चन्दम कहते थे।

ब्रह्मदेय

ब्रह्मदेय के मामलों पर गणमान्य ब्राह्मण भूस्वामियों की सभा होती थी। इन सभाओं में लिए गये फैसलों को अक्सर मंदिर की दीवारों पर शिलालेख के रूप में लिखा जाता था। कभी कभी शहरों में ऐसी सभाएँ व्यापारियों के संगठन द्वारा की जाती थीं जिसे नगरम कहते थे।

ब्रह्मदेय की सभा बहुत कुशलता से चलाई जाती थी। इसके बारे में तमिलनाडु के चिंगलपुट जिले के उत्तरमेरुर मंदिर के अभिलेखों से पता चला है। सभा में सिंचाई, बगीचा, मंदिर, आदि के मामलों के लिए अलग-अलग समितियाँ होती थीं। जो लोग इन सभाओं के सदस्य बनने की पात्रता रखते थे उनके नाम ताड़ के पत्ते से बने छोटी पर्चियों पर लिख दिए जाते थे। इन पर्चियों को एक मटके में रखा जाता था और किसी छोटे लड़के से एक के बाद एक पर्चियाँ निकालने के लिए कहा जाता था।

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