10 इतिहास

भारत में राष्ट्रवाद

गोल मेज सम्मेलन

जब आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा तो गाँधीजी ने आंदोलन समाप्त कर दिया। 5 मार्च 1931 को गांधीजी ने इरविन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इसे गाँधी-इरविन पैक्ट कहा जाता है। इसके अनुसार, लंदन में होने वाले गोल मेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए गाँधीजी तैयार हो गए। इसके बदले में सरकार राजनैतिक कैदियों को रिहा करने को मान गई।

गाँधीजी दिसंबर 1931 में लंदन गए। लेकिन वार्ता विफल हो गई और गाँधीजी को निराश होकर लौटना पड़ा।

जब गाँधीजी भारत लौटे, तो उन्होंने पाया कि अधिकांश नेता जेल में थे। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। मीटिंग, धरना और प्रदर्शन को रोकने के लिए कई कदम उठाए गए थे। महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को दोबारा शुरु किया। लेकिन 1934 आते-आते आंदोलन की हवा निकल गई थी।

भारत में राष्ट्रवाद

आंदोलन के बारे में लोगों का मत

किसान

किसानों के लिए स्वराज की लड़ाई का मतलब था अधिक लगान के विरुद्ध लड़ाई। जब 1931 में लगान दरों में सुधार के बगैर ही आंदोलन बंद कर दिया गया तो किसान अत्यधिक निराश थे। जब 1932 में आंदोलन को दोबारा शुरु किया गया तो अधिकांश किसानों ने इसमें भाग लेने से मना कर दिया। छोटे किसान तो यह चाहते थे कि बकाया लगान पूरी तरह से माफ हो जाए। वे अब समाजवादियों और कम्यूनिस्टों द्वारा चलाए जा रहे उग्र आंदोलनों में हिस्सा लेने लगे। ऐसा लगता था कि कांग्रेस धनी जमींदारों को नाराज नहीं करना चाहती थी। इसलिए कांग्रेस और गरीब किसानों के बीच के रिश्ते में कोई सुनिश्चितता नहीं थी।

व्यवसायी

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों का व्यवसाय काफी बढ़ गया था। वे उन अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ थे जो व्यवसाय में बाधा डाल रहे थे। वे आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपए और पाउंड का ऐसा विनिमय दर चाहते थे जिससे आयात को रोका जा सके। Indian Industrial and Commercial Congress की स्थापना 1920 में हुई और Federation of the Indian Chamber of Commerce and Industries (FICCI) का गठन 1927 में हुआ। यह व्यवसाय हितों को एक साझा मंच पर लाने के प्रयासों का परिणाम था। व्यापारियों के लिए स्वराज का मतलब था गलघोंटू अंग्रेजी नीतियों का अंत। वे ऐसा माहौल चाहते थे जिससे व्यवसाय फले फूले। आतंकी घटनाओं और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से वे चिंतित थे क्योंकि अशांत माहौल में व्यवसाय में खलल पड़ता था।

औद्योगिक मजदूर

कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति औद्योगिक मजदूरों का रवैया ठंडा ही रहा। चूँकि उद्योगपति कांग्रेस के नजदीकी थे इसलिए मजदूरों ने इस आंदोलन से दूरी बनाए रखी। लेकिन कुछ मजदूर आंदोलन में शामिल हुए थे। कांग्रेस भी उद्योगपतियों को दरकिनार नहीं करना चाहती थी, इसलिए इसने मजदूरों की मांगों को अनसुना कर दिया।

महिलाओं की भागीदारी

सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन उनमें से अधिकांश शहरों में रह रही ऊँची जाति से थीं और ग्रामीण इलाकों के धनी घरों से थीं। लेकिन काफी लंबे समय तक कांग्रेस अपने संगठन में महिलाओं को जिम्मेदारी के पद देने से कतराती रही। कांग्रेस केवल महिलाओं की प्रतीकात्मक भागीदारी से ही संतुष्ट रहना चाहती थी।